________________
44442
विचार करता है-'मैं कौन हूँ? मैं यहाँ क्यों आया ? यह भयंकर भूमि कौन-सी है तथा दःख देने में अत्यन्त चतुर ये भयानक जीव (नारकी) कौन हैं ?' इस प्रकार चिन्तवन करते ही उसे कु-अवधिज्ञान प्राप्त होता है तथा उससे वह अपने को नरक में पड़ा हुआ समझता है । उस समय अनन्तवीर्य के जीव की दशा भी उसी प्रकार समझो । तदनन्तर वह जीव अपने पूर्व कर्मों के लिए असह्य विलाप करता है एवं उन यातनाओं को देख कर दीन के समान अतिशय पश्चाताप करता है। वह सोचता है कि पहिले भव में मेरी मति गई थी; मैं मद से अन्धा हो गया था; इसलिये मैं ने ऐसे कु-कर्म किये थे, जिनके लिए मुझे नरक में आना पड़ा । दुर्लभ मनुष्य-भव को पाकर भी दुष्ट इन्द्रियों के वश होकर मुझ मूर्ख ने जबरदस्ती जो पाप किये थे, अब उनका फल तो भोगना ही पड़ेगा । मैंने स्त्री, पुत्र एवं परिवार के लिए जो पाप कर्म किया था, उस का फल अब अकेले ही सहना पड़ता है। वहाँ पर मेरी लक्ष्मी को भोगनेवाले बहुत-से मनुष्य थे; परन्तु यहाँ अत्यन्त तीव्र दुःखों को सहन करने के लिए मेरे सिवाय अन्य कोई दिखाई नहीं देता ॥११०॥ जिस प्रकार आम के पकने पर उसके लोभ से बहुत-से पक्षी पेड़ पर आकर एकत्र हो जाते हैं, पर फलों के समाप्त हो जाने पर सब उड़ जाते हैं, उसी प्रकार परिवार के लोग भी दुःख के समय सब मुझसे अलग हो गये । अनेक तरह की भोगोपभोग की सम्पदाओं से जिस निकृष्ट शरीर का मैंने पालन-पोषण किया था, वही मेरे नरक का कारण हुआ एवं शत्रु के समान मुझे त्याग कर चला गया । मनुष्य जन्म में मुझ पापी ने न तो देव-पूजन किया था, न पात्र-दान दिया था, न उत्तम व्रत किये थे एवं न सुख प्रदायक कोई व्रत नियम ही लिया था। उस समय मेरा चित्त विषयों में ऐसा आसक्त था कि न तो मैं कोई तपश्चरण कर सका, न ज्ञान सम्पादन कर सका, न सुख का सागर श्रुतज्ञान का पठन-पाठन कर सका एवं न पंच-नमस्कार महामन्त्र का जाप ही कर सका । वहाँपर मैंने जीवों की हिंसा की थी, मिथ्या भाषण किया था, बिना दिया हुआ दूसरे का द्रव्य लिया था, पर-स्त्रियों का सेवन किया था, अनेक प्रकार का परिग्रह धारण किया था एवं सुख की इच्छा रखनेवाले मुझ मूर्ख ने नरक प्रदायिनी इन्द्रियों का यथेच्छ सेवन किया था । जिह्वा-लोलुप होकर रात्रि में भोजन किया था एवं नरक पहुँचाने वाले कन्दमूल आदि अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण किया था। इस प्रकार मनुष्य-जन्म में मैंने अत्यन्त,घोर पाप किया था, उसी के उदय से मुझे नरक की यह घोर वेदना प्राप्त हुई है । कितने ही पुण्यवान मनुष्यों ने उत्तम मनुष्य भव को पाकर
EFb PRE
८०