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________________ शां ति ना थ पु रा ण ये वचन सुन कर हम दोनों ने दीक्षा आदि लेने के लिए निश्चयात्मक प्रतिज्ञा की थी । अब तेरे विवाह का प्रसंग जान कर एवं अपने वचनों का स्मरण कर मैं तुझे समझा कर दीक्षा दिलाने के लिए स्वर्ग से यहाँ आई हूँ । इसलिये दुःख देनेवाले एवं नरक में पहुँचानेवाले विवाह की कामना तू त्याग दे एवं मोक्ष - मार्ग प्रदर्शक दीपक के समान उत्तम दीक्षा को धारण कर ॥ ९० ॥ देवी की उक्ति को सुन कर अपने नाम को सार्थक करती हुई सती सुमति ने धर्म का उपार्जन करने के लिए वैराग्य धारण किया तथा पिता की आज्ञा लेकर सब परिवार एवं विवाह के सुख को त्याग कर संवेग में तल्लीन होती हुई सुव्रता नाम की गणिनी के पास पहुँची । एक साड़ी के अलावा उसने शेष सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर दिया एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए सात सौ कन्याओं के साथ दीक्षा धारण की। उसने सर्म्यदर्शन की विशुद्धता की एवं कर्मों का नाश करने के लिए समस्त परीषहों को जीत कर घोर एवं कठिन तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । अन्त में वह समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर सम्यग्दर्शन रूप धर्म से स्त्रीलिंग को छेदकर आनत स्वर्ग में बड़ी ऋद्धि को धारण करनेवाला देव हुई । वहाँ पर धर्म के प्रभाव से वह बीस सागर आयु तक देवियों के समूह से उत्पन्न होनेवाला दिव्य सुख भोगने लगा । अथानन्तर राजा अनन्तवीर्य अनेक प्रकार के सुख भोगता हुआ, तीन खण्ड पृथ्वी का राज्य करता था । परन्तु उसने सम्यग्दर्शन- व्रत नियम आदि कुछ भी धारण नहीं किया था । उसने बहुत-से आरम्भ परिग्रह द्वारा अनेक प्रकार से पाप का उपार्जन किया । वह सदा पाँचों इन्द्रियों के वश में रहा एवं क्रोध, लोभ आदि कषायों के अधीन रहा । उसने रौद्र-ध्यानपूर्वक प्राण त्याग कर अशुभ कर्म के उदय से अधोमुख लटकते हुए घण्टा के आकार के नरक में आकर जन्म लिया । नरक की भूमि में जाते ही ऐसा दुःख होता है, मानो हजारों बिच्छुओं ने एक साथ काट लिया हो । नरक अशुभ है, उसका स्पर्श ही बहुत कष्टदायी है एवं वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुर्गन्धमय है ॥१००॥ वहाँ पर यह जीव अन्तर्मुहूर्त में ही शरीर प्राप्त कर लेता है एवं पूर्ण अवस्था को धारण कर अधोमुख होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है । वह नारकी बार-बार ऊपर को उछलता है एवं फिर नीचे गिर पड़ता है तथा जिस प्रकार वायु के वेग से सूख पत्ता पृथ्वी पर इधर-इधर उड़ता फिरता है, उसी प्रकार वह नारकी भी वहाँ भूमि पर इधर-उधर डोलता फिरता है । उस समय उस भयानक स्थान को देख कर तथा असाता के समस्त दुःख के कारण नारकियों को लाल आँखें निकाले हुए देख कर वह मन में श्री शां ति ना थ पु रा ण ७९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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