________________
.
.
4
वन्दना की । मुनिराज ने उनके सामने सुख प्रदायक, व्रत-उपवास से उत्पन्न होनेवाले एवं जीवों का हित करनेवाले गृहस्थों के योग्य धर्म का उपदेश दिया । धर्म का स्वरूप सुन कर उन्होंने पुण्य सम्पादन हेत व्रतों के साथ-साथ भावों की शुद्धिपूर्वक पापों के नाश करनेवाले उपवास धारण करने की प्रतिज्ञा की। त्रिपुरनगर में वज्रांगद नाम का विद्याधर राज्य करता था, उसकी रानी का नाम वज्रमालिनी था । एक दिन वह वज्रांगद अपनी रानी के साथ मनोहर वन में गया था, वहाँ पर उन दोनों कन्याओं को देख कर वह अत्यन्त मदान्ध हो गया था । अपनी रानी को अपने नगर में पहुँचा कर वह शीघ ही वन में लौट आया एवं उन कन्याओं को बलात् ले जाने को उद्यत हुआ । इधर उसके नीच अभिप्राय को ताड़ कर उसकी रानी वज्रमालिनी नगर से फिर वनमें लौट आई । दूर से ही रानी को आते देख कर वह डर गया एवं उन दोनों कन्याओं को वेणु वन में छोड़ दिया एवं रानी को साथ ले कर अपने नगर को चला गया । उस वेणु वन में उन दोनों ने संन्यास धारण किया एवं शक्ति प्रगट कर क्षुधा, तृष्णा आदि परीषहों को जीत कर धर्मध्यान करती हुई वहाँ रहने लगीं । उन्होंने श्री जिनेन्द्रदेव के चरणों में अपना ध्यान लगाया एवं अक्षय सुख प्राप्त करने के लिए जन्म पर्यन्त उपवास धारण कर समाधिपूर्वक अपने प्राण त्यागे । उस व्रत-उपवास के पुण्य से मैं सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र की नवमिका नाम की रूपवती, ज्ञानवती एवं ऋद्धियों को धारण करनेवाली देवी हुई ॥८०॥ तूने भी शुभ ध्यान से प्राण त्यागे थे, इसलिए पुण्य-कर्म के उदय से तू भी कुबेर की बड़ी ऋद्धि को धारण करनेवाली रति नाम की देवी हुई थी। वहाँ पर भी हम दोनों ने अपने पूर्व-भव का सब वृत्तान्त जान लिया था एवं इसलिए हम दोनों में पुण्य उत्पन्न करनेवाला प्रगाढ़ स्नेह उत्पन्न हो गया था । किसी दिन हम दोनों बड़ी विभूति के साथ नन्दीश्वर द्वीप में गई थीं एवं वहाँ पर अष्टाह्निका पर्व में बड़े उत्साह के साथ पूजा की थी। हम दोनों पूजा कर धर्म-सेवन करने के लिए मन्दराचल पर्यन्त भद्रशाल आदि वन में गई थीं। वहाँ पर निर्जन्तुक वन में मति, श्रुति, अवधि-इन तीनों ज्ञानो से सुशोभित धृतषेण नामक चारण ||
७८ मुनि विराजमान थे । पुण्य-कर्म का उदय होने से उनके. दर्शन किये ।
सब जीवों को सुख देनेवाले उन मुनिराज को हम दोनों ने नमस्कार किया था तथा हम दोनों को मोक्ष कब प्राप्त होगा -यह प्रश्न उनसे किया था? इसके उत्तर में उन मुनिराज ने कहा था कि इस भव से चौथे जन्म में तपश्चरण के द्वारा अनन्त सुख प्रदायक मोक्षलक्ष्मी तुम दोनों को अवश्य प्राप्त होगी । मुनिराज के
44 4
444