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के गर्भ से सुमति नाम की पुत्री हुई थी, जो कि बड़ी ही बुद्धिमती तथा रूप-लावण्य से सुशोभित थी। चन्द्रमा की कला के समान क्रम से बढ़ती हुई वह स्वयं कला तथा लक्ष्मी से भी उत्तम जान पड़ती थी तथा प्रतिदिन वह दान-पुण्य कर जीवन सफल करती थी । एक दिन उसने सब परिग्रहों से रहित दमवर , नामक चारण मुनि को यथायोग्य आहार-दान दिया। उस दान के प्रभाव से उसके यहाँ रत्न-वृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्रकट हुई । यह ठीक ही है, क्योंकि दान देने से संसार में क्या प्राप्त नहीं हो सकता ? पुण्यवान बलभद्र प्रसन्न हो कर जब अपनी पुत्री को देखने के लिए आया तथा उसे देख कर उसके विवाह की चिन्ता करने लगा । तब वह सोचने लगा कि यह कन्या केवल रूप से ही सुशोभित नहीं है, वरन् यौवन तथा पुण्य से भी सुशोभित है; इसलिये कौन-सा पुण्यवान वरं इसके योग्य होना चाहिये? इस प्रकार सोच कर बलभद्र ने उसी समय दूतों को देश-देशान्तर में भेज कर स्वयम्वर की घोषणा की ॥६०॥ स्वयम्वर के लिए उसने शीघ्र ही एक विशालकाय मण्डप बनवाया तथा आगंतुक प्रतियोगी विद्याधरों को तथा राजाओं को यथायोग्य आसन पर बैठाया । मूल्यवान आभूषणों से विभूषिता वह कन्या रथ पर चढ़ कर स्वयम्वर मण्डप में आई । बलभद्र-नारायण भी बड़ी विभूति के साथ आ कर सभा में एक स्थान पर खड़े हो गये । इसी समय अकस्मात एक सुन्दर देवी विमान में आकाश-मार्ग से आई तथा आकाश में ही ठहर कर हितकारक धार्मिक वचन कहने लगी । वह कहने लगी-'हे कन्ये ! तुझे अपनी तथा मेरी पूर्व की अवस्था याद है या नहीं? हम दोनों ही स्वर्ग में सुख-लक्ष्मी का अनुभव करनेवाली देवियाँ थीं। सदा सुखी रहने के लिए हम दोनों ने परस्पर उत्तम तथा हितकारी यह नियम बना लिया था कि हम दोनों में से जो पहिले स्वर्ग से च्युत होगी, उसे पुनः मोक्षमार्ग में लगाने के लिए दूसरी देवी समझाएगी । इसलिये अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कर दुःख तथा क्लेश उत्पन्न करनेवाले राग को दूर कर तथा तपश्चरण धारण कर । अब संवेग आदि गुणों को बढ़ानेवाली हम दोनों की पूर्व-भव की कथा मैं कहती हूँ, मन को स्थिर कर अच्छी तरह सुन । पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र के नन्दनपुर नगर में पुण्य के प्रभाव से अमितविक्रम नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम अनन्तमती था, उसके धर्म को धारण करनेवाली दो चतुर पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थी । एक का नाम धनश्री तथा दूसरी का नाम अनन्तश्री था ॥७०॥ एक दिन वे दोनों पुत्रियाँ पुण्य सम्पादन के लिए धर्म की प्राप्ति करनेवाले सिद्धकूट चैत्यालय में गईं तथा वहाँ पर उन्होंने नन्दन मुनि की
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