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________________ .. के साधन हैं तथा अनेक क्लेशों के महासागर हैं, इसलिये कोई भी बुद्धिमान इनका सेवन नहीं करेगा । यह लक्ष्मी बिजली के समान चन्चला है, यह जीवन की ओस की बूंद के समान शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाला है यह शरीर रोगरूपी सर्प का घर है तथा संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब नष्ट हो जानेवाला है ॥४०॥ इस प्रकार चिन्तवन कर वह द्विगुणित वैराग्य को प्राप्त हुई तथा काल-लब्धि प्राप्त हो जाने से दीक्षा लेने के लिए प्रस्तुत हुई । नारायण एवं बलभद्र से प्रार्थना कर वह उनसे पृथक हुई एवं अपने ज्ञान से शल्यों को त्याग कर निःशल्य हुई। तीनों लोक जिनकी पूजा करते हैं, ऐसे स्वयंप्रभ तीर्थंकर के समीप वह पहुँची एवं मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक मस्तक झुका कर उन्हें नमस्कार किया । उस विद्याधरी ने उन तीर्थंकर देव से मृत्युरूपी विष का निवारण करनेवाले धर्मामृत का पान किया एवं शोकरूपी विष का बहुत-ही शीघ्र त्याग कर दिया । वह सुप्रभा नाम की गणिनी के पास पहुँची एवं उन्हें नमस्कार कर कर्मों का नाश करने के लिए तथा सुख प्राप्त करने के लिए उनसे दीक्षा धारण की । संसार से डर कर उसने बारह प्रकार का कठिन तपश्चरण धारण किया एवं स्त्रीलिंग को छेद कर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुई । वहाँ पर वह देव अपने हृदय में धर्म धारण कर देवियों एवं विभूति आदि से उत्पन्न होनेवाले सुख भोगने लगा । धर्म का फल-रूप देखो ! कहाँ तो वह कामान्ध कन्या, कहाँ वह कठिन तपश्चरण एवं कहाँ यह अनेक प्रकार की विभूतियों से शोभायमान स्वर्ग का देव-यह सब आश्चर्य चकित करनेवाले संयोग हैं । संसार में यह प्राणी सोचता कुछ है तथा भाग्य से कार्य कुछ अन्य ही कर बैठता है । इसलिए भाग्य की लीला बड़ी ही विचित्र है। अथानन्तर-उन दोनों भाईयों ने पुण्य-कर्म के उदय से छः प्रकार की सेना, चक्ररत्न तथा अपने पराक्रम से तीनों खण्ड पृथ्वी जीत ली । उन्होंने अनेक भूमिगोचरी जीते, विद्याधर जीते, व्यन्तर देव जीते तथा इन सबकी सारभूत वस्तुओं को अपने चरणों के सामने रखवा कर ग्रहण किया । तदनन्तर जिनके चरणों को देव-विद्याधर आदि नमस्कार करते हैं, ऐसे उन दोनों भाई (नारायण-बलभद्र) के इन्द्र के समान अपनी नगरी में प्रवेश किया एवं उत्तमोत्तम विभूति से वे बहुत-ही शोभायमान होने लगे ॥५०॥ वे दोनों ही (नारायण तथा बलभद्र) पुण्य-प्रभाव से लक्ष्मी का उपभोग एक साथ करते थे एवं सुखसागर में निमग्न रहते थे; इसलिये बीतता हुआ समय भी उन्हें ज्ञात नहीं होता था । अपराजित (बलभद्र) की रानी विजया 44444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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