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________________ ना थ बहरी, कुबड़ी, कानी तथा लंगड़ी थीं । उन सब का पालन-पोषण तू ही करती थी । किसी एक दिन पुण्य कर्म के उदय से तू शैल पर्वत पर गई तथा वहाँ पर तूने सर्वयश नाम के मुनिराज की वन्दना की । मुनिराज ने कृपा कर तेरे सुख के लिए सब तरह के सुखों की खानि तथा सारभूत श्रावक-धर्म का निरूपण किया । उसे सुन कर तेरे परिणाम शान्त हुए तथा तू अहिंसा, अणुव्रत को तथा धर्मचक्र नाम के उपवास को धारण कर अपने घर आई । एक दिन तूने शुद्ध परिणामों से विधिपूर्वक सुव्रता नाम को गणिनी कोरसों से पूर्ण आहार दिया । परन्तु अपने अशुभ कर्मों के उदय से उसने उसी समय उस आहार का वमन कर दिया । उस समय तेरे सम्यग्दर्शन नहीं था, इसलिये तूने उसकी निन्दा की । तदनन्तर व्रतों पालन के फल से तूने समाधिपूर्वक अपने प्राण त्यागे तथा सुख के सागर सौधर्म स्वर्ग में सामानिक जाति की देवी ति हुई । वहाँ पर अनेक तरह के उत्तम सुख भोग तथा फिर वहाँ से चय कर तू मन्दिरमालिनी नाम की रानी के गर्भ से दमितारि की पुत्री हुई। व्रत तथा उपवास के पुण्य फल से तूने स्वर्ग में भोगे तथा इस लोक 'सुख में भी उत्तम जन्म, रूप एवं सम्पदा प्राप्त की ॥३०॥ मुनिराज की निन्दा करने के कारण उत्पन्न हुए पाप तुझे शोक हुआ एवं तेरे बलवान पिता का वध हुआ, तेरा हरण हुआ तथा तू दुःखी हुई । इसलिये प्राण नाश होने पर भी चतुर तथा पुण्यवान पुरुषों को मुनियों के शरीर को ग्लानि देखकर उनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि मुनियों की निन्दा सब दोषों की खानि है तथा सब तरह के दुःख उत्पन्न करनेवाली है।' इस कथा को सुनकर विद्याधर पुत्री कनकश्री दुःखी हुई एवं श्री केवली देव को नमस्कार कर उन दोनों भाईयों के साथ प्रभाकरी नगरी को चली गई । अथानन्तर अनन्तवीर्य का पुत्र अनन्तसेन शिव मन्दिर नगर राज्य करता था । कनक श्री के भाई सुघोष एवं विद्युदुष्ट उस नगर में बाहर से आये तथा पिता के शत्रु अनन्तसेन को देख कर उस पर क्रोधित होकर उसके साथ लड़ने लगे । दमितारि के दोनों पुत्रों को अपने पुत्र के साथ लड़ते हुए देख कर नारायण एवं बलभद्र को भी क्रोध आ गया तथा उन्होंने उन दोनों को युद्ध में मार गिराया । अपने दोनों भाईयों के मरण का समाचार सुन कर कनकश्री उस दुःख को सह नहीं सकी तथा भारी शोक के कारण दावानल (अग्नि) से जली हुई लता के समान वह मुरझा गई । वह कामभोगों की इच्छा त्याग कर वैराग्य को प्राप्त हुई तथा आत्मज्ञान हो जाने के कारण अपने किये हुए 'कर्मों की निन्दा करने लगी । वह विचारने लगी कि ये भोग तो पिता भाई आदि का घात करानेवाले हैं, नरक पु रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण ७५
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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