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प्रकार की ऋद्धियों से सुशोभित ऐसी गन्धकुटी पर विराजमान श्री केवली देव दिखाई दिए । भव्य जीवों को समझाने के लिए इन्हीं धर्म-रत्नाकर श्रीजिनेन्द्रदेव की धर्म एवं वैराग्य उत्पन्न करनेवाली कथा कहता हूँ। इसी विजयार्द्ध पर्वत के शिव-मन्दिर नामक नगर में राजा कनकपुन्ज राज्य करते थे; उनकी महारानी का नाम जयदेवी था। उनके कीर्तिधर नाम का पुत्र था, जो कि अत्यन्त यशस्वी था । बुद्धिमान एवं पृथ्वी के समान क्षमा आदि गुणों को धारण करनेवाले ये राजा कीर्तिधर ही दमितारि के पिता थे । किसी दिन शुद्ध बुद्धिवाले वे राजा कीर्तिधर काल लब्धि पाकर राज्य, भोग, उपभोग शरीर एवं संसारादि से विरक्त हुए । तदनन्तर वे परम ज्ञानी व भव्य जीवों को सब प्रकार की शान्ति प्रदान करनेवाले शान्तिकर नाम के मुनिराज के समीप जा पहुँचे ॥१०॥ वहाँ जा कर मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक मस्तक झुका कर मुनिराज को नमस्कार किया एवं दोनों प्रकार के परिग्रहों को त्याग कर श्री जिनेश्वरी दीक्षा धारण की । मूल-गुण तथा उत्तर-गुणों को धारण करनेवाले एवं सब जीवों का हित चाहनेवाली वे संयमी दृढ़वती बारह प्रकार का तपश्चरण करने लगे एवं ध्यान केन्द्रित करने का कठोर अभ्यास करने लगे । उन्होंने एक वर्ष तक प्रतिमायोग धारण किया एवं फिर शुक्लध्यान से घातिया-कर्मों को नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त किया । तदनन्तर भक्ति-वश भव्य देवों ने आ कर उन कीर्तिधर केवली भगवान की पूजा एवं वन्दना की। उन्होंने अनेक देशों में विहार किया, धर्म-वृष्टि से भव्य प्राणी-रूपी खेतों को सींचा एवं फिर वे आकर वहाँ विराजमान हुए। वहीं पर उन दोनों भाईयों ने भक्तिपूर्वक उनकी तीन प्रदक्षिणा दीं, मस्तक झुकाकर उनको नमस्कार किया एवं धर्मश्रवण करने के लिए बैठ गए । उन दोनों भाईयों ने केवली के मुख से अनेक प्रकार के सुख देनेवाले तथा दोनों लोकों का हित करनेवाले दोनों प्रकार के धर्मों का स्वरूप सुना तथा आत्म-निन्दा कर पापों का नाश किया । तदनन्तर कनकश्री भी उन दोनों के साथ आई, घातिया-कर्मों का नाश करनेवाले गृहस्थाश्रम में अपने पितामह को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं अपने पूर्व-भव पूछे । इसके उत्तर में समस्त जीवों के हित करने में तत्पर वे केवली भगवान अपने वचनामृतरूपी जल से उसकी ज्ञान-पिपासा शान्त करने के लिए कहने लगे-'इस उत्तम जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे मनोहर शंख नगर में देविल नाम का एक वैश्य रहता था ॥१०॥ उसकी स्त्री का नाम बन्धुश्री था । तू उनके यहाँ श्रीदत्ता नाम की ज्येष्ठ पुत्री थी । तेरी दो दो लघु भगिनी भी थीं, जिनका नाम कुन्टी एवं पंगूकुणी था । ये दोनों ही
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