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________________ . FFFF ऋद्धियाँ प्राप्त थीं; नारायण व बलभद्र का पद प्राप्त था; अनेक राजा उनकी सेवा करते थे एवं इसलिए वे इन्द्र व प्रतीन्द्र के समान जान पड़ते थे । अपने दोनों पुत्रों को राज्य भोगने के योग्य समझ कर राजा स्तिमितसागर लक्ष्मी-भोग एवं सुखादिकों से विरक्त हो गया । ठीक ही है। क्योंकि सज्जन लोग भोगों का अनुभव तब तक ही करते हैं, जब तक कि पुत्र योग्य न हो जाए । पुत्र के योग्य हो जाने पर वे उन सब को त्याग देते हैं ॥१३०॥ राजा स्तिमितसागर ने सबसे पहिले श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा की एवं फिर बड़ी विभूति के साथ अभिषेक कर अपने बड़े पुत्र अपराजित को राज्य दे दिया। उसने बड़े उत्सव के साथ दूसरे पुत्र अनन्तवीर्य को युवराज पद दिया। इस प्रकार उस राजा ने सब भोगों की इच्छा त्याग दी; केवल चारित्र की इच्छा करने लगे। वह राजा, स्वयंप्रभ नामक तीर्थंकर देव के समीप पहुँचा एवं धर्मोपदेश देनेवाले उन श्री जिनेन्द्रदेव को बड़ी भक्ति से नमस्कार किया । तीर्थंकर की आज्ञानुसार उसने सब परिग्रहों का त्याग किया एवं कर्मों का नाश करने के लिए सब तरह से कल्याण करनेवाली उत्तम दीक्षा धारण की । किसी एक दिन स्तिमितसागर मुनि ने धरणेन्द्र की विभूति देखी, तो उन्हें ईर्ष्या उत्पन्न हो गई एवं उसे पाने के लिए ऐसा निदान किया, जो कि साधुओं के लिए निन्दा करने योग्य है । इसलिए उस अशुभ निदान के फल से उसने बड़ी ऋद्धि के पद को नष्ट कर सामान्य भोग प्रदान करनेवाले धरणेन्द्र पद को प्राप्त किया । जिस प्रकार इहलोक में थोड़े मूल्य की वस्तु अधिक मूल्य में मिलना कठिन नहीं होता, उसी प्रकार परलोक के लिए भी यही नियम निश्चित है । इधर वे दोनों भाई अपने उपार्जन किए हुए शुभ-कर्म के उदय से नारायण-बलभद्र का पद पाकर नीति-परायण आचरणों से एवं बड़ी विभूति से भारी उन्नति को प्राप्त हुए थे । उनके घर बर्बरी एवं चिलातिका नाम की दो नर्तकियाँ थीं, जो कि बड़ी रूपवती थीं एवं नृत्य-गीत आदि कलाओं में बड़ी निपुण थीं ॥१४०॥ किसी दिन वे दोनों ही भाई उन दोनों का नृत्य देख रहे थे एवं बड़ी प्रसन्न मुद्रा में बड़े आराम से बैठे थे कि इतने में वहाँ नारद आ पहुँचे। उस समय वे दोनों भाई नृत्य देखने में इतने तल्लीन थे कि उन्होंने नरकगामी, क्रूर पापी उस नारद को आसन प्रदान, नमस्कार आदि से आदर-सत्कार नहीं किया । जिस प्रकार तेल के संयोग से अग्नि भभक उठती है या ज्येष्ठ के महीने मे सूर्य अतिशय सन्तप्त हो जाता है, उसी प्रकार उस समय नारद का हृदय भी क्रोधरूपी अग्नि की शिखा से सन्तप्त हो रहा था । वह कलहप्रिय नारद उसी समय उस सभा से निकल गया एवं क्रोध से 98444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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