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________________ ना थ शोभायमान तालाब हैं एवं पग-पग पर कमलों से शोभित बावड़ियाँ हैं । वहाँ पर धर्मोपदेश देनेवाले, असंख्य जिनराज, देव-मनुष्यों के साथ प्रतिदिन विहार करते हैं । वहाँ पर चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण, कामदेव एवं असंख्य धर्मात्मा उत्पन्न होते रहते हैं ॥१००॥ केवलज्ञानी भी सब संघ के साथ विहार करते हैं तथा देवों के द्वारा पूज्य तथा सातों ऋद्धियों से सुशोभित गणधर देव भी विहार करते रहते हैं । वहाँ पर ऊँची ध्वजाओं से शोभायमान अनेक चैत्यालय हैं; जो मुनि, अर्जिका, श्रावक, श्राविका - इन चारों संघों से भरे हुए धर्म की खानि के समान हैं । वहाँ पर कुदेव, कुलिंगी, कुशास्त्र, कुधर्म तथा उनको प्ररूपण करनेवाले शास्त्र कभी दिखाई नहीं देते । वहाँ पर अनेक सुख देनेवाला अहिंसा तथा सत्यस्वरूप, मुनि श्रावक के भेद से दो प्रकार का जिन-धर्म सदा प्रवर्तमान रहता है। उसी देश के मध्य भाग में बड़ी ति मनोहर अनेक तरह की सैकड़ों ऋद्धियों से भरपूर तथा स्वर्ग के समान प्रभावशालिनी प्रभाकरी नाम की नगरी है । वह नगरी बारह योजन लम्बी है तथा नौ योजन चौड़ी है । अनेक पुण्यवान लोगों से भरी हुई वह नगरी दूसरीधर्म की खानिके समान जान पड़ती है। बाहर से नगरी में आने के लिए रत्नों की किरणों से शोभायमान एक हजार बड़े मार्ग हैं तथा ध्वजाओं से शोभायमान पाँच सौ छोटे मार्ग हैं । वहाँ पर ऊँचा अकृत्रिम कोट है, जल से भरी हुई खाई है, सोने के तथा रत्नों के बारह हजार बाजार हैं, एक हजार चौक हैं तथा मनुष्यों से भरे हुए मोक्षमार्ग के समान राजमार्ग हैं करोड़ों भवनों में लगी हुई, देवों को वश में करनेवाली ध्वजाओं से वह नगरी ऐसी उत्तम जान पड़ती है, मानो वहाँ पर जन्म लेने के लिए वे अपने ध्वजारूपी हाथों से देवों को ही बुला रही हो ॥११०॥ वहाँ पर बजो - गाजे से भरपूर, सुवर्णमय सुन्दर श्रीजिन-मन्दिर ऐसे जान पड़ते हैं, मानों धर्म के सागर ही हों। उस नगरी में दान, पूजा करनेवाले पुण्यवान व्रती, सदाचारी तथा अच्छे लक्षणों वाले पुरुष निवास करते हैं । चारों प्रकार के संघ से सुशोभित सुख देनेवाली सदा उत्सवों से भरपूर एवं धर्म की खानि वह नगरी जिनवाणी के समान शोभायमान है । उस नगरी में उत्पन्न हुए कितने ही लोग मोक्ष प्रदायक दीक्षा धारण कर तथा तपश्चरण के बल से कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। कितने ही लोग गृहस्थ-धर्म का पालन कर भगवान की पूजा कर स्वर्ग जाते हैं एवं कितने ही दान देकर भोगभूमि के सुख प्राप्त करते । ऐसे अनेक गुणों से शोभायमान उस नगरी में पुण्य-कर्म के उदय से धर्मात्मा स्तिमितसागर नाम का राजा राज्य करता था । वह राजा त्यागी था, = पु रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण ६७
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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