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आत्मबल उनका सहायक था तथा शुभ भावों से सदा धर्मध्यान में तत्पर रहते थे । उनमें से शुद्ध बुद्धि को धारण करनेवाले अमिततेज ने विधिपूर्वक प्रायोपगम संन्यास धारण किया, चारों आराधनाओं का आराध न किया तथा समाधिपूर्वक प्राणों को त्याग कर वे आनत स्वर्ग के नन्द्यावर्त विमान में बड़ी ऋद्धि के धारी रविचूल नाम के देव हुए । श्रीविजय भी संन्यास की विधि से प्राणों को त्याग कर उसी स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ । वहाँ पर सब विमान श्वेत रत्नों के बने हुए हैं, भूमि सब इच्छाओं को पूर्ण करनेवाली है एवं समस्त वृक्ष ही कल्पवृक्ष हैं । वहाँ के राजभवन बहुत ऊँचे हैं तथा मणियों की किरणों से आलोकित हैं; सभा स्थान बहुत ही मनोहर है तथा उपपाद स्थान बहुत-ही उत्तम हैं । वहाँ पर सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े तथा पचहत्तर योजन ऊँचे अकृत्रिम जिन-मन्दिर हैं। वे जिन-मन्दिर रल तथा सुवर्ण से बने हुए हैं, सदा सब दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं, देव-देवियों से भरे रहते हैं तथा गाजे-बाजे आदि के शब्दों से भरपूर रहते हैं ॥७०॥ मन्दिरों में भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की सर्वदा पूजा होती है तथा अनेकानेक उत्सव होते रहते हैं । ऐसे चैत्यालय रत्नों के बने हुए उपकरणों से सदा शोभायमान रहते हैं । प्रत्येक श्रीजिनमन्दिर में रत्नों की कान्ति से दैदीप्यमान तथा पाँच सौ धनुष ऊँची एक सौ आठ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। वे चैत्यवृक्ष बड़े ही भले जान पड़ते हैं, जिन पर श्री जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो रत्नों तथा सोने के बने हुए हैं, बड़े ऊँचे हैं तथा इन्द्र भी जिनकी पूजा करते हैं । वहाँ के नगर, कोट व गलियों से शोभायमान हैं तथा देव-देवियों से भरे हुए हैं । वहाँ के क्रीड़ा पर्वत, वन, बावड़ी तथा तालाब बड़े मनोहर जान पड़ते हैं । वहाँ पर रात-दिन का विभाग नहीं होता, रलों का प्रकाश सर्वदा बना रहता है । वहाँ पर न सन्ताप होता है, न प्रबल वायु होती है, न वर्षा होती है, न गर्मी-सर्दी की बाधा ही होती है । वहाँ पर न तो छहों ऋतुओं का परिवर्तन होता है तथा न चोर, शत्रु आदि का भय होता है । इस स्वर्गलोक में न कोई दुःखी है, न दरिद्र है, न हीन है, न कुरूप है, न कोई अंग-उपांग रहित है तथा न कोई कुमार्गगामी दिखाई देता है । वहाँ पर सदा उत्सव होता रहता है, गीत-नृत्यों में सब चतुर होते हैं, समय सदा शान्त बना रहता है, भाव शुभ होते हैं तथा सब देव सदा यौवनावस्था में ही बने रहते हैं । बहुत कहने से क्या लाभ है ? संसार में जो दुर्लभ तथा कठिन है, वह स्वर्ग में स्वभावतः ही दिखाई दे जाता है । उन दोनों ही देवों ने शुभ-कर्म के उदय से दिव्य-शैय्या सहित
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