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________________ 4444 को सब तरह के दोष उत्पन्न करनेवाला है। इसमें विषयों में अन्धे हुए मनुष्य ही परिभ्रमण करते हैं । जो धर्म की नाव पर चढ़कर संसाररूपी समुद्र को पारकर मोक्ष नगर में जा विराजमान हुए हैं, वे ही सुखी हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । हम लोग बड़े मूर्ख हैं, जो विषयों में आसक्त होकर एवं राज्य का भार ढो-ढो कर इस दुर्लभ आयु का बहुभाग यों ही व्यर्थ गंवा देते हैं ॥५० ॥ इसलिए जब तक निर्दयी यम हमें लेने के लिए नहीं आ जाता, तब तक हमें अपना हित कर लेना चाहिए । उन दोनों धीर-वीर राजाओं ने इस प्रकार अपने मन में चिन्तवन किया एवं भोगों से विरक्त होकर द्विगुणित संवेग को प्राप्त किया। राजा अमिततेज ने अपने पुत्र अर्कतेज को एवं श्रीविजय ने अपने पुत्र श्रीदत्त को राज्य दे दिया तथा वैराग्य में तल्लीन होकर वे दोनों सिद्धकूट चैत्यालय में पहुंच गए । वहाँ पर जाकर वे दोनों ही अपनी आत्मा को विशुद्ध करने के लिए समस्त पापों को नाश करनेवाली श्री जिनेन्द्रदेव की अष्टाह्निका महापूजा भक्ति एवं विभूति के साथ करने लगे। पूजा करने के बाद वे दोनों ही राजा परलोक को सुधारनेवाले नन्दन नामक मुनिराज के समीप चन्दन नामक वन में पहुँचे । वहाँ जाकर मन, वचन एवं काय की शुद्धिपूर्वक मुनिराज के चरण-कमलों को नमस्कार किया तथा उनकी की आज्ञानुसार दोनों प्रकार के अशुभ परिग्रहों का त्याग कर उन दोनों ने जिन-मुद्रा धारण की । उन्होंने जीवन-पर्यन्त चार प्रकार के आहार का त्याग कर सन्तोषरूप आहार धारण किया अर्थात् जीवन-पर्यन्त आहार का त्याग कर संन्यास धारण किया तथा शुद्धतापूर्वक चारों प्रकार की आराधना करने लगे । वे दोनों ही मुनिराज अपनी शक्ति को प्रकट कर भूख-प्यास आदि से उत्पन्न हुए बाईस घोर परीषहों को यथाशक्ति करते थे । वे दोनों ही मुनि मन, वचन एवं काय की शुद्धतापूर्वक अपने मन में समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले पंच-परमेष्ठी के महामंत्र का जाप करने लगे । वे दोनों ही मुनिसज समस्त पापों को दूर करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार सब तरह सुख देनेवाले धर्मध्यान में ही रात-दिन संलग्न रहते थे ॥६०॥ तपश्चरण से उन दोनों का समस्त शरीर कृश हो गया था, हाथ-पैरों की शक्ति विलीन हो गई थी, केवल हड्डी-चर्म शेष रह गया था, दोनों नेत्र भीतर को धंस गये थे; परन्तु दोनों का हृदय शुद्ध था । उन दोनों ने शरीर से ममत्व त्याग दिया था, श्री जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों में अपना हृदय समर्पण कर दिया था। उन्होंने अशुभ ध्यान सर्वथा छोड़ दिया था तथा वैराग्य में ही अपना चित्त लगाया था । वे समस्त क्रर्मों का नाश करने के लिए दृढ़-संकल्प थे, 4Fb PER
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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