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हुए पुण्योदय से प्राप्त अपने || श्री
के सम्बन्ध में पूछा । मुनिराज ने अपने ज्ञान से विश्वनन्दि के भव से लेकर पुण्य उत्पन्न करनेवाले सारे भव कह सुनाए । यह सुन कर वह सोचने लगा-'देखो, विषयों में आसक्त होकर मैंने अनेक दःखों को देनेवाले एवं महानिन्द्य भोगों में विश्वास किया था। तदनन्तर धर्म-ध्यान में तत्पर वे दोनों ही राजे अनेक तरह से पुण्योपार्जन कर उन दोनों मुनिराजों के चरण-कमलों को नमस्कार कर अपने घर को चले गये । वे दोनों ही राजे भमिगोचरी एवं विद्याधरों के भोगों का अनुभव करते हए पण्योदय से प्राप्त अपने || राज्य का शासन बहुत दिनों तक करते रहे । पुण्य-कर्म के उदय से एक दिन वे दोनों ही राजे विपुलमति एवं विमलमति नामक मुनियों के समीप पहुँचे । उन दोनों ही राजाओं ने तीनों लोकों के द्वारा पूज्य उन मुनिराजों के चरण-कमलों को मस्तक झुका कर नमस्कार किया तथा उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर बैठ गये । तब ज्येष्ठ मुनिराज ने उन दोनों के सामने समस्त दुःखों को दूर करनेवाला एवं समस्त सुखों का सागर धर्म का स्वरूप कहा-जो मुनि-श्रावक के भेद से दो प्रकार का है। तदनन्तर मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों की आयु एक महीना शेष रह गई है, इसलिये अब तुम योग्य व्रत धारण कर लो ॥४०॥ यह सुनकर उन दोनों को ही भोग, शरीर, संसार एवं राज्य से वैराग्य उत्पन्न हुआ तथा शुभ परिणामों को धारणकर वे दोनों अपने-अपने घर लौट गये।
अथानन्तर-वे दोनों ही चिन्तवन करने लगे-'देखो, यह आयु क्षण-क्षण में यों ही बीतती जाती है, तथापि मूर्ख अपनी आत्मा का हित करनेवाले धर्म का सेवन नहीं करते हैं । यह राज्य-लक्ष्मी बिजली एवं
के समान चन्चल है: ये भोग दष्ट विषफल के समान अन्त में बहुत ही दःख देनेवाले हैं। स्त्रियाँ | दुर्गति को देनेवाली हैं एवं सर्पिणी के समान प्राणों का नाश करनेवाली हैं । सब धन-धान्य आदि को भक्षण करनेवाले माया-जाल के समान ये पुत्र हैं। यह परिवार अहित करनेवाला है; धर्म-दान-दीक्षा आदि को रोकनेवाला है एवं पाप की प्रेरणा देनेवाला है । इसलिये बुद्धिमान लोगों को इसका त्याग शत्रुओं के समान कर देना चाहिये । स्त्री आदि से उत्पन्न हुआ सुख सामायिक है, दुर्गति प्रदायक है, दुःख से उत्पन्न होता है एवं दुःख का कारण है; इसलिये वह दुःखरूप है, इसमें किसी तरह का सन्देह नहीं । एक जन्म का नाश करनेवाले हलाहल का पान करना श्रेष्ठ है; परन्तु अनेक जन्मों में दुःख देनेवाले विषय-सेवन से उत्पन्न हुआ सुख भोगना उत्तम नहीं है । यह संसार विषमय है, अपार है, दुःखों से भरा हुआ है एवं जीवों
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