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एक चारण मुनि उस राजा के घर आहार लेने के लिए आये । राजा ने बड़ी भक्ति से उन मनिराज की पड़गाहना की तथा केवल आत्म-सुख में लीन हुए उन श्रेष्ठ मुनिराज को अपना परलोक सुधारने के लिए मधुर आहार-दान दिया । उस दान के फल से उस राजा के घर इहलोक तथा परलोक-दोनों लोकों में उत्तम फल को प्रदान करनेवाली रत्न-वृष्टि आदि पंच-आश्चर्य प्रगट हुए । एक दिन धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से प्रेरित होकर अमिततेज तथा श्रीविजय दोनों ही अमरगुरु तथा देवगुरु मुनिराजों के समीप गए। दोनों राजाओं ने उन दोनों मुनिराजों को मस्तक झुकाकर नमस्कार किया, उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी तथा फिर उनसे धर्म का यथार्थ स्वरूप पूछा ॥२०॥ तब अमरगुरु मुनिराज कहने लगे कि मैं धर्म के कुछ साधन बतलाता हूँ, तुम दोनों ही ध्यान लगाकर सुनो । मोक्ष देनेवाला निर्मल धर्म सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होता है तथा सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तपश्चरण से भी नियमपूर्वक वह धर्म प्राप्त होता है । मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को मोहित करनेवाला वह उत्तम धर्म मुनियों के उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों से प्रगट होता है। दूसरों को उत्कृष्ट धर्म का उपदेश देने से, दूसरों का उपकार करने से, मन-वचन-काय को शुद्ध रखने से, वह महाधर्म प्राप्त होता है । मुनीश्वरों को वह उत्तम-धर्म कायोत्सर्ग पालन करने से, धर्म-शुक्ल आदि उत्तम-ध्यान करने से तथा श्रेष्ठ मन्त्रों का जाप करने से प्राप्त होता है । गृहस्थों को वह पुण्य रूप धर्म, अणुव्रत आदि बारह व्रतों को पालन करने से, पात्रों को दान देने से तथा भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करने से प्राप्त होता है । इस प्रकार धर्म उपार्जन करने के बहुत से साधन हैं; उन सबको जानकर तुम दोनों को स्वर्ग-मोक्ष प्रदायक धर्म का उपार्जन करना चाहिए । पुण्य-कर्म के उदय से ही यह जीव परलोक में इन्द्र होता है, तीर्थंकर होता है, चक्रवर्ती होता है, बहुत-सी विभूतियाँ प्राप्त करता है, स्वर्ग प्राप्त करता है, कामदेव होता है, पूज्य होता है; सदा श्रेष्ठ सुखों को प्राप्त होता है, मान्य होता है, रूपवान होता है, धर्मात्मा होता है एवं अत्यन्त गुणी होता है। इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-सी विभूतियों को प्राप्त होता है । जिनकी बुद्धि धर्म में ही लगी हुई है, ऐसे वे मुनिराज उन दोनों के सामने इस प्रकार धर्म का स्वरूप, उसके हेतु-कारण एवं फल कह कर मौन हो गए ॥३०॥ वे दोनों राजे धर्म का यथार्थ स्वरूप सुन कर एवं उनके वचनामृतों का पान कर ऐसे सन्तुष्ट हुए, जैसे वे अजर-अमर हों । तदनन्तर जिन्हें देव-मनुष्य सब पूजते हैं, ऐसे मुनिराजों के चरणकमलों को नमस्कार कर श्रीविजय ने अपने पिता त्रिपृष्ट के पहिले भव
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