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________________ . 44649 अपने घर पर भी समयानुकूल पूजा किया करता था । वह अपने परिवार के साथ विमान में बैठकर मेरु पर्वत आदि क्षेत्रों के जिन चैत्यालयों में विराजमान जिन-प्रतिमाओं की वन्दना बड़ी भक्ति से सदा कस्ता रहता था । वह राजा प्रतिदिन शुद्धतापूर्वक सुख का सागर एवं घर के सब पापों को दूर करनेवाला उत्तम . चार प्रकार का दान मुनिराजों को दिया करता था । वह तीर्थंकरों के पुराणों में कही हुई, पदार्थों से संवेग प्रकट करनेवाली; महापुण्य उत्पन्न करनेवाली, सारभूत, मनोहर एवं उत्तम धर्म-कथा को सदा सनता रहता था । अपने मन को जीतनेवाला वह राजा भव्य जीवों को सुख का सागर-रूप, सब जीवों का हित करनेवाले सारभूत धर्म का उपदेश दिया करता था । चारों गतियों में परिभ्रमण करानेवाले दुष्ट दर्शन-मोहनीय कर्म का नाश कर वह राजा मुक्तिरूपी स्त्री को वश करनेवाले निःशंकित आदि गुणों को बढ़ाता रहता था। वह राजा मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपना योग्यतानुसार स्वर्ग प्रदायक सारभूत व्रतों का यत्नपूर्वक निरतिचार पालन करता था ॥१०॥ मुनि के समान उसके परिणाम शान्त हो गये थे, पिता के वह प्रजा का पालन करता था एवं इहलोक तथा परलोक-दोनों लोकों का हित करनेवाले धार्मिक कार्यों में वह सदा अपनी प्रवृत्ति रखता था । अपने कुल में तथा अपनी जाति में उत्पन्न हुई प्रज्ञप्ति कामरूपिणी, अग्रिस्तम्भिनी, उदकस्तम्भिनी, विश्वप्रवेशिनी, अप्रतिघातग्रमिनी, आकाशगामिनी, उत्पादनी, वशीकरणी, आवेशिनी, प्रस्थापिनी, प्रमोहनी, प्रहरणी, संक्रामणी, वर्तनी, संग्रहणी, भंजनी, विपाटनी, प्रवर्तनी, प्ररोदनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापनी, निक्षेपिणी, शवरी, चाण्डाली, मातगी, गौरी, षट्कांगिका, श्रीमुद्रनी, शतशंगकुला, कुम्भांडी, चिरवेगिनी, रोहिणी, मनोवेगा, चपलवेगा, चण्डवेगा, लघुकरी, पर्णालध्वाक्षिका, वेगवती, शीतवेताली, उष्णवेताली, महाज्वाला, सर्वविद्याछेदनी, युद्धवीर्या, बन्धनमोचनी, प्रहरावरणी, भ्रामरी, भोगिनी आदि बहुत-सी विद्याएँ उस अमिततेज विद्याधर ने अपने पुण्य-कर्म के उदय से स्वयं सिद्ध की थीं। पुण्य-कर्म के उदय से वे सब विद्याएँ उसके सब तरह के कार्यों को करानेवाली थीं तथा अनेक तरह की मनोहर भोगोपभोग की सम्पदाओं को देती रहती थीं । धर्म के प्रभाव से उसे दोनों श्रेणियों का आधिपत्य मिल गया था; इसलिये वह दोनों श्रेणियों का चक्रवर्ती होकर विद्याधरों के योग्य भोगों का अनुभव करता था। किसी एक दिन ज्ञानवान् सब तरह के परिग्रहों से रहित तथा धीर-वीर दमवर नामक 4444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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