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है, शान्त परिणाम ही जिसका सुख है, शील ही जिसके वस्त्र है तथा मनुष्य, विद्याधर सब जिसकी पूजा व आदर-सत्कार किया करते हैं, ऐसा वह अमिततेज राजा पुण्य कर्म के उदय से मुनिराज के समान शोभायमान होता था । साता वेदनीय कर्म के उदय से जो अनेक प्रकार के सुखों को भोगता है, पुण्यकर्म के उदय से जिसे सब विद्याधर नमस्कार करते हैं तथा जो गुणों का एक महासागर है, ऐसा वह राजा अर्ककीर्ति का पुत्र अमिततेज विद्याधर, लोक में उत्पन्न हुई समस्त लक्ष्मी को प्राप्त हुआ था । इसलिए हे विद्वानों ! श्री जिनेन्द्रदेव ने जो कुछ भी कहा है, वह निर्मल है, तीर्थंकर की विभूति को देनेवाला है, श्रेष्ठ दान तथा व्रतों से उत्पन्न होता है, देवगण भी जिसके लिए प्रार्थना करते हैं, जो सुखों की खानि है, नरकादि दुर्गतियों से रोकनेवाला है, अच्छे-अच्छे पदों को देनेवाला है तथा स्वर्ग की लक्ष्मी का घर है । इसलिये ऐसे पुण्य कर्मों का सम्यग्दर्शन के साथ सदा शीघ्रता के साथ सम्पादन करते रहो । जिनके चरण-कमलों को देव तथा विद्याधर सब नमस्कार करते हैं, जो तीनों लोकों के अद्वितीय स्वामी हैं, जो निर्मल गुणों के समुद्र हैं, शान्ति देनेवाले हैं, धर्म के कर्त्ता हैं, अनेक श्रेष्ठ मुनिराज जिनकी सेवा करते हैं तथा जो मुक्तिरूपी स्त्री में अनुरक्त हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान अपनी निर्मल कीर्ति से सदा जयवन्त हों ।
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इस प्रकार श्री शान्तिनाथ पुराण में राजा श्रीषेण व श्री शान्तिनाथ के चार भवों का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥५॥
छट्ठा अधिकार
जो संसार भर को शान्ति देनेवाले हैं तथा तीनों लोक जिनकी पूजा करते हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं अपने पाप विनष्ट करने के लिए प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर- अमिततेज विद्याधर सब पर्वों में हिंसा आदि आरम्भ को त्याग मोक्ष प्राप्त करानेवाला उपवास नियमपूर्वक करने लगा। जब कभी उसे राज्य के आरम्भादिक से कोई दोष लग जाता था, तो वह उस दोष को दूर करनेवाला योग्य प्रायश्चित भी कर लेता था । सब तरह की विभूति को देनेवाली तथा आठ द्रव्यों से होनेवाली महापूजा भी श्री जिनालय में जाकर वह बड़ी विभूति के साथ करता था तथा
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