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________________ श्री एक दिन उसने चपलवेग विद्याधर की विभूति देखी एवं उसे देखकर उस मूर्ख ने उस विभूति को विद्वानों के द्वारा निन्दा करने योग्य तथा त्याज्य बताया । पहिले जन्म में किये हुए उस निदान के फलस्वरूप विद्याधरों के कुल में यह अशनिघोष विद्याधर हुआ है एवं पूर्व जन्म के स्नेह के कारण ही आज इतने शां सुतारा का हरण किया है। प्रेम, द्वेष, स्नेह एवं बैर ये सब पूर्व जन्मों के सम्बन्ध से ही भव-भव में अनेक प्रकार से प्राणियों के साथ जुड़े रहते हैं । इसलिए हे राजन् ! अपनी आत्मा का हित चाहनेवालों को चाहिए ति कि वे कभी भी किसी दुर्बल प्राणी के साथ दुःखदायी बैर न बाँधें । हे राजन ! इस जन्म के नौवें भव श्री शान्तिनाथ नाम का सोलहवाँ तीर्थंकर तथा पाँचवाँ चक्रवती होगा । इस प्रकार भगवान - रूपी तू चन्द्रमा की वाणी - रूपी चाँदनी से उस विद्याधर की हृदय रूपी कुमुदिनी का मुख पूर्ण रूप से विकसित हो गया । उस समय वह विद्याधर अपने तीर्थंकर पद की प्राप्ति की घोषणा सुन कर अत्यन्त आनन्द - मग्न हो गया एवं अपने को ऐसा मानने लगा, मानो उसे अरिहन्त की विभूति प्राप्त हो गई हो । अशनिघोष पु विद्याधर ने भी अपनी पूर्व कथा सुन कर पहिले अपनी आत्मा की यथेष्ट निन्दा की एवं तदनन्तर र रा वैराग्य को प्राप्त कर वहीं पर संयम धारण कर लिया । में ना 5555 थ करता रहा एवं अनाचार करने के कारण उस तापस परिवार में मृगश्रृंग नाम का पुत्र हुआ । वह भी मिथ्यात्व - कर्म के उदय से संसार में परिभ्रमण करनेवाला पंचाग्नि आदि मिथ्या तपश्चरण ही किया करता था तथा मिथ्या व्रतों को ही पालता रहता था ॥ १७० ॥ ण इस कथा को सुन कर अशनिघोष की माता आसुरी को भी स्वर्ग-मोक्ष देनेवाला संवेग प्राप्त हुआ तथा उसने भगवान के वचनानुसार कर्मों को नाश करनेवाली जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली । श्रीविजय की माता स्वयंप्रभा भी सांसारिक देह तथा भोगों से विरक्त हुई एवं कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने के लिए उसने मोक्ष प्राप्त करनेवाला संयम धारण कर लिया ॥१८०॥ सुतारा भी अपने पूर्व-भव सुनकर विरक्त हुई तथा मोक्ष के लिए वैराग्यरूपी आभरणों से सुशोभित होकर कर्मों का नाश करनेवाला तपश्चरण करने लगी । श्रीविजय आदि शेष सब लोगों ने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, उनको सादर नमस्कार किया तथा अमिततेज के साथ अपने योग्य स्थान के लिए प्रस्थान किया । व्रतों का समुदाय ही जिसका मुकुट है, ज्ञान ही जिसका कुण्डल है, यम-नियम ही जिसके शस्त्र हैं, सम्यग्दर्शन ही जिसका हार श्री शां ति ना थ पु रा ण ५९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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