SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ EFFFF थे, उनका हृदय सदा शुभ रहता था, वे बड़े ही निर्मल थे, मधुर-भाषी थे, सुन्दर एवं नेत्रों को सुख देनेवाले थे । वे सब दिव्य माला, दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से सुशोभित थे, शभ लक्षणोंवाले थे. स्वेद-रहित थे. सुन्दर थे, समचतुरस्र-संस्थान थे एवं सुन्दर आकृतिवाले थे । पूर्व-जन्म में उपार्जन किये हुए पुण्य-कर्म के उदय से वे सब देव तथा देवियाँ रूप, लावण्य तथा शोभा से सुशोभित थे तथा अनेक गुणों से विभूषित थे । वे सब दिव्य सामग्री लेकर मेरु पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि स्थानों के अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर भगवान की पूजा करते थे । वे देव परलोक सम्बन्धी सुख प्राप्त करने के लिए कर्म-भूमियों में जाकर बड़ी भक्ति से प्रतिदिन श्री जिनेन्द्रदेव की वन्दना करते थे । वे देव तत्वों को जानने के लिए तथा उन पर श्रद्धान करने के लिए अपने परिवार के साथ श्री तीर्थंकर के मुख से प्रगट हुई जिनवाणी को सुनते थे । वे देव दिव्य भवनों में मेरु पर्वत पर, वनों में तथा द्वीप समुद्रों में अपनी-अपनी देवियों के साथ सदा अनेक तरह की क्रीड़ा किया करते थे ॥१६०॥ वे देव अपनी अपनी देवियों के साथ मधुर गीत सुनते थे, सुन्दर नृत्य देखते थे तथा अनेक तरह के भोग भोगते थे । स्वर्ग में अनन्त सुख है; इसलिए आनन्द-रस से तृप्त हुए तथा सुख-सागर में निमग्न हुए वे देव बीतते हुए समय का ज्ञान भी नहीं कर पाते थे । अपने पुण्य-कर्म के उदय से उन चारों जीवों की पाँच पल्य की आयु थी, जो सब तरह के दुःखों से, बाधाओं से रहित थी तथा सुख का स्थान थी । उस आयु को पूरी कर तू (श्रीषेण का जीव) वहाँ से चयकर पुण्य-कर्म के उदय से यहाँ अर्ककीर्ति राजा का अमिततेज नाम का पुत्र हआ है। रानी सिंहनिन्दिता का जीव, जो स्वर्ग में विद्युत्प्रभा देवी थी, वहाँ से चय कर शुभ-कर्म के उदय से ज्योतिप्रभा नाम की तेरी स्त्री हुई है। रानी अनिन्दिता का जीव, जो स्वर्ग में देव था, वहाँ से चयकर पुण्य के फल से यह बुद्धिमान श्रीविजय हुआ है, जो कि तुझसे बहुत स्नेह करता है । सत्यभामा ब्राह्मणी का जीव; जो स्वर्ग में देवी थी, वहाँ से चयकर शुभ-कर्म के उदय से पुण्यवती एवं शुभ-लक्षणों से सुशोभित यह सुतारा हुई है । ऐरावती नदी के किनारे रथभूत-रमण नामक वन में एक तापस का आश्रम था, जिसकी भूमि पूर्णरूप से थी एवं जो मिथ्यात्व से भरपूर था । उसमें कौशिक नाम का एक तपस्वी रहता था, जो कि मिथ्या तपश्चरण एवं मिथ्या व्रत करने में सदैव तत्पर रहता था। अशुभ-कर्म के उदय से चपलवेग नाम की स्त्री उसकी पत्नी थी । पूर्व-वर्णित कपिल नाम का मूर्ख ब्राह्मण बहुत दिनों तक चारों गतियों में परिभ्रमण
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy