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पल्य की बतलाई है तथा उनका कभी. कदलीघात नहीं होता एवं वे सदा यौवनावस्था में ही बने रहते हैं । वे तीन दिन के बाद बदरीफल के (बेर के) समान आहार लेते हैं, जो कि अमृतमय, दिव्य एवं महास्वादिष्ट होता है । वे आर्य सदा संकल्पमात्र से ही दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हए विभिन्न ऋतुओं में सुख देनेवाले भोगों का अनुभव किया करते हैं । सम्यग्दर्शन रहित भद्र पुरुष ही उत्कृष्ट पात्र को दान देने के कारण भोगोपभोग करनेवाले विलक्षण आर्य होते हैं । पात्र-दान की अनुमोदना से उदार हृदय के पशु भी भोगभूमि में भोगोपभोगों से भरपूर शुभ जन्म लेते हैं ॥१४०॥ केवल भोगों की इच्छा रखनेवाले मनुष्य, कुपात्र को दान देने से, इसी भोगभूमि में सुखी होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन-रहित भी एक बार पात्र दान देता है, तो वह भोगभूमि में सुखसागर के मध्य में अवश्य जाकर मग्न होता है । प्रीति उत्पन्न करनेवाला तथा बाधा-रहित जो सुख भोगभूमियों में प्राप्त होता है, वह अनेक प्रकार की चिन्ता रखनेवाले चक्रवर्तियों को भला कहाँ मिल सकता है ? भोगभूमियों में रहनेवाले जीवों को दान से ही अनेक प्रकार की ऋद्धि प्राप्त होती हैं; दान से ही अनेक तरह के सुख मिलते हैं, दान से ही अनेक तरह के भोग मिलते हैं, दान से ही अनेक तरह के गुण प्राप्त होते हैं, दान से ही रूप-लावण्य आदि अनेक तरह की
सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं एवं दान से ही अनेक तरह की प्रीति प्राप्त होती है । भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले | सब आर्य पात्र-दान से उत्पन्न हुए महासुखों का उपभोग कर मन्द कषायरूप भावों से मरकर स्वर्ग को जाते |
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___अथानन्तर- श्रीषेण का जीव भी बहुत दिन तक वहाँ सुख भोगकर सौधर्म स्वर्ग के श्रीनिलय विमान में श्रीप्रभ नाम का देव हुआ । सिंहनिन्दिता का जीव भी भोगभूमि के सुख भोगकर उसी स्वर्ग के उसी विमान में विद्युत्प्रभा नाम की देवी हुई । अनिन्दिता का जीव भोगभूमि के सुखों का भोगकर उसी सौधर्म स्वर्ग में बिमलप्रभ नाम का देव हुआ । सत्यभामा ब्राह्मणी का जीव भी सुखपूर्वक प्राणों को त्याग कर पुण्य-कर्म के उदय से उसी विमान में शुक्लप्रभा नाम की देवी हुई ॥१५०॥ उन सब का शरीर निर्मल था, सात धातुओं से तथा नख-केश आदि से रहित था एवं आँखों की टिमकार से मुक्त था । उन सबके मति, श्रुति, अवधि-ये तीन ज्ञान थे, आठ ऋद्धियों से वे सुशोभित थे, मानसिक आहार से सन्तुष्ट हो जाते थे, उनका शरीर वैक्रियक था एवं वे बड़े ही रूपवान थे। उनके रोग-क्लेश-विषाद आदि कभी नहीं होते