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________________ . 4 देते हैं । अशन, पान, खाद्य, सद्य-यह चार प्रकार का आहार कहलाता है । कड़वा, कषायला, चरपरा, मीठा, खट्टा एवं नमकीन-ये छः रस कहलाते हैं । पात्रांग जाति के वृक्ष सोने एवं रनों के बने हुए भंगार, कचक, कलशा, थाली, करवा आदि बर्तन दिया करते हैं । वस्त्रांग जाति के वृक्ष कोमल, बारीक एवं बहुमूल्य रेशमी दुपट्टा एवं पहनने से कपड़े देते हैं । ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पति हैं एवं न देवों के द्वारा बनाये हुए हैं; ये केवल पृथ्वी के बने हुए हैं । ये कल्पवृक्ष अनादि निधन हैं एवं स्वभाव से ही फल देनेवाले हैं । काल आदि से उत्पन्न हुए किसी भी निमित्त कारण की इनकी आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार | आजकल के वृक्ष मनुष्यों का उपकार करते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों के दान के फल से ये कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के फलों से भरपूर रहते थे । भोगभूमि में मूंगा, सोना, हीरा, चन्द्रमा एवं नीलरत्न आदि से सुशोभित रहनेवाली पाँचों रंग की सुगन्धित पृथ्वी दिन-रात शोभा देती है । वहाँ की पृथ्वी हर समय सब इन्द्रियों को सुख देती रहती है एवं उस पर सदा कोमल-चिकनी चार अंगुल प्रमाण घास सुशोभित रहती है। वहाँ के पशु रसायन के रस की बुद्धि रखनेवाले होते हैं तथा स्वादिष्ट, कोमल एवं चिकनी घास को सदा चरते रहते हैं ॥११०॥ वहाँ पर क्रीड़ा-पर्वत भी बने हुए हैं, जो सुन्दर हैं, जिनमें से किरणें निकल रही हैं; सोना, मूंगा, रल आदि से बने हुए हैं एवं कल्पवृक्षों से शोभायमान हैं । वहाँ पर स्वच्छ जल से भरी हुई बावड़ी भी हैं, जिनमें रत्नों की सीढ़ियाँ लगी हुई हैं तथा स्थान-स्थान पर दोनों किनारे रत्नमय | बालू से सुशोभित नदियाँ बहती रहती हैं । वहाँ के वन भी बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें मदोन्मत कोकिल | सदा कूकती रहती है । सब ऋतुओं के फल-फूल खिले रहते हैं एवं दूसरे देवारण्य के समान जान पड़ते हैं । वहाँ पर सूर्य का सन्ताप कभी नहीं होता; न बादलों से वर्षा होती है, न शीतकाल होता है तथा न कोई भय होता है । न वह चाँदनी होती है, न रात-दिन का विभाग होता है, न ऋतुएँ पलटतीहैं तथा न वहाँ पर किसी को दुःख देनेवाली भाव प्रकट होते हैं । वहाँ पर सिंह, सूअर, बिल्ली, बाघ, कुत्ता आदि निकृष्ट जानवर कभी मांसमक्षी तथा क्रूर नहीं होते है । शंख, चींटी, डाँस, मच्छर, खटमल, बीछी आदि विकलत्रय (दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय) जीव भी पैदा नहीं होते । वहाँ पर कौवा, गीध आदि पक्षी नहीं होते तथा सर्प आदि विषैले एवं दुष्ट मांसभक्षी जानवर भी होते । वहाँ पर रोगी, द्वेष करनेवाला; ज्वर से पीड़ित, बूढ़ा, दीन, कुरूप, बदसूरत, उन्मत्त (पागल), लंगड़ा, लूला आदि तथा दुःखी-दरिद्र, दुर्जन, 44 4
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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