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उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया । उन दोनों मुनिराजों ने शुक्लध्यान रूपी अग्नि से कर्मरूपी ईंधन को शीघ्र ही जला दिया तथा घोर तपश्चरण के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया । उन दोनों ने सूक्ष्मध्यानरूपी शस्त्र से
त कर्मों का नाश किया तथा वे दोनों मनुष्य शरीरों को नष्ट कर मोक्ष में पधार अनन्त-गुणों के पात्र बन गये । अनन्तमती ने भी श्राविका के सम्पूर्ण व्रत धारण किये तथा कर्म के प्रभाव से स्वर्ग में उत्पन्न हुई । ठीक ही है, क्योंकि सज्जनों के अनुग्रह से भला क्या प्राप्त नहीं हो सकता है ?
अथानन्तर-राजा श्रीषेण आदि सब जीव (दोनों रानियों एवं सत्यभामा ब्राह्मणी) जो उत्तर कुरु नामक भोगभूमि में उत्पन्न हुए थे, वे पात्र-दान के प्रभाव से दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए एवं अवर्णनीय सुखों का अनुभव करने लगे। मद्यांग, तूर्यांग, विभूषांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरांग, मृहांग, भोजनांग, पात्रांग तथा वस्त्रांग-ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं ॥१०॥ श्री जिनेन्द्रदेव ने भोगभूमि में दश प्रकार के कल्पवृक्ष कहे हैं । वे कल्पवृक्ष बड़े मनोहर होते हैं, रत्नमय होते हैं तथा अपनी कान्ति से सब दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले होते हैं । मद्यांग जाति के वृक्ष, मधु, मैरेय, सीधु, अरिष्ट, आस्रव आदि सुगन्धित तथा अमृत के समान अनेक प्रकार के रसों को देते हैं । यह मद्य, मद्य नहीं है। किन्तु इसमें कामोद्दीपन की सामर्थ्य है-इसलिए उपचार से इसे 'मद्य' कहते हैं । वास्तव में यह एक प्रकार से वृक्षों का रस है, जिसे भोगभूमियों में लोग सेवन करते हैं । जो मद उत्पन्न करता है, जिसे मतवाले लोग पीते हैं तथा जो मन को मोहित करनेवाला है, ऐसे मद्य को आर्य लोग कभी नहीं पीते हैं । तूर्यांग जाति के वृक्ष भेरी, नगाड़े, घण्टा, शंख, मृदंग, झल्लरी तालकाहला आदि वाद्य-यन्त्र देते हैं । भूषणांग जाति के वृक्ष हार, केयूर, नूपुर, कुण्डल, करधनी, कंकण तथा मुकुट आदि आभूषण देते हैं । मालांग जाति के वृक्ष नागकेसर, चम्पा आदि सब ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले फूलों की अनेक प्रकार की मालाएँ देते हैं । दीपांग जाति के ऊँचे वृक्ष प्रतिदिन मणिमय दीपों से शोभायमान होते हैं एवं नये पत्तों, फूलों-फलों से जलते हुए दीपकों के समान जान पड़ते हैं । ज्योतिरांग जाति के वृक्ष सदा दैदीप्यामान होते हुए प्रकाश प्रदान करते हैं एवं करोड़ों सूर्यों के समान सब दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं । गृहांग जाति के वृक्ष मण्डप, ऊँचे-ऊँचे राजभवन; राज-दरबार चित्रशाला, नृत्यशाला आदि देने में समर्थ होते हैं ॥१००॥ भोजनांग जाति के वृक्ष अमृत के समान स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं (षट) छहों रसों से भरपूर भोजन आदि सुन्दर आहार
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