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अमिततेजसेना है तथा उन दोनों का बुद्धिमान पुत्रं मणिकुण्डल मैं हूँ । पुण्डरीकिणी नगरी में अतिप्रभ नामक केवली भगवान के पास जाकर तथा उन्हें नमस्कार कर मैं ने अपने पूर्व भव की कथा पूछी थी। तब भगवान ने जो कुछ मुझसे कहा था, वही मैं तुम लोगों से इस समय कहना चाहता हूँ, क्योंकि तीर्थंकर के मुख से कही हुई वह कथा बड़ी मनोहर है तथा तुम दोनों का हित करनेवाली है ॥८०॥ देखो-पुष्करद्वीप में जिन चैत्यालयों का आश्रयभूत पश्चिम मेरु पर्वत है। उसके पूर्व की ओर त्रिवर्णाश्रम से सुशोभित विदेहक्षेत्र है । उसमें एक वीतशोका नगरी है, जिसमें चक्रायुध नाम का राजा राज्य करता था तथा उसकी | पुण्यशालिनी रानी का नाम कनकमाला था । कनकमाला के कनकलता तथा पद्मलता नाम की दो पुत्रियाँ थीं। उसी राजा के विद्वन्मती नाम की दूसरी पतिव्रता रानी भी थी, जिसके पद्मावती नाम की पुत्री थी। धर्म के प्रभाव से वे सब मिलकर अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव करते थे । एक दिन रानी कनकमाला पुण्य-कर्म के उदय से अपनी दोनों पुत्रियों के साथ गणिनी (व्रतधारी आचार्या) अमितसेना अर्जिका के पास पहुँची । उनके समीप जाकर सब ने नमस्कार किया तथा काल-लब्धि के प्राप्त हो जाने से सब ने गृहस्थों के व्रत अंगीकार किये । वे सब व्रतों को पालन कर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेद कर सौधर्म स्वर्ग में बड़े ऋद्धिधारी देव हुए । पद्मावती भी मरकर अपने पुण्योदय से सौधर्म स्वर्ग में एक अप्सरा हुई, जो कि बड़ी ही गुणवती थी। वे सब देवगण धर्म के प्रभाव से उत्पन्न हुए इन्द्रियों को तृप्त करनेवाले उत्तम सुखों एवं ऋद्धियों का तथा देवियों आदि के सम्बन्ध से प्रकट होनेवाले सुखों का अनुभव करने लगे । अपनी आयु के पूर्ण हो जाने पर वे सब वहाँ से च्युत हुए एवं पुनर्जन्म धारण किया । उनमें से कनकलता का जीव मणिकण्डल मैं हआ हूँ। कनकलता, पद्मलता दोनों पुत्रियों के जीव स्वर्ग से देव पर्याय त्याग कर शेष पुण्य-कर्म के उदय से इन्द्र तथा उपेन्द्र नाम के तुम दोनों राजपुत्र उत्पन्न हुए हो ॥४०॥ तथा पद्मावती का जीव, जो सौधर्म स्वर्ग में अप्सरा हुई थी, वह वहाँ से चय कर यह रूपवती अनन्तमती विलासिनी हुई है । श्री अमितप्रभ तीर्थंकर से यह शुभ एवं उत्तमकथा सुनकर पहिले जन्म के स्नेह से तुम्हें समझाने के लिए मैं आया हूँ । इस कथा को सुनकर उन दोनों भाईयों ने अपनी निन्दा की तथा विरक्त होकर वे दोनों भाई शुभ-कर्म के उदय से सुधर्म नाम के मुनिराज के समीप पहुँचे । उन दोनों ने उन मुनिराज को नमस्कार किया; विरक्त होकर बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग किया तथा
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