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वे ज्ञानरूपी महासागर के पारगामी थे, पृथ्वी के समान क्षमा धारण करनेवाले थे तथा कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए वे अग्नि के समान थे, वे जल के समान स्वच्छ हृदय के थे, वायु के समान सब देशों में विहार करनेवाले थे । वे दोनों मुनिराज अपने धर्म का (आत्मा के धर्म ) का उद्योत करनेवाले थे, चतुर थे तथा प्रतिदिन वन में निवास करनेवाले थे । वे दोनों ही विद्वान मुनि चौरासी लाख उत्तरगुणों से विभूषित थे तथा शील के अठारह हजार भेदों से सुशोभित थे । ऐसे वे दोनों मुनिराज आहार लेने के लिए राजा के घर पधारे । जिस प्रकार राजा के अर्थ-कोष को देख कर दरिद्र प्रसन्न होता है, उसी प्रकार मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त करानेवाले उन दोनों मुनिराजों को देख कर राजा श्रीषण बहुत ही प्रसन्न हुआ । राजा ने अपना मस्तक झुका कर उन दोनों मुनिराजों के चरणकमलों को नमस्कार किया तथा "तिष्ठ-तिष्ठ' कह कर दोनों को विराजमान किया ॥४०॥ श्रेष्ठ दान देने में तत्पर उस राजा के उस समय श्रद्धा, शक्ति, निर्लोभ, भक्ति, ज्ञान, दया तथा क्षमा-दाता के ये सातों गुण प्रकट हो गए थे। प्रतिग्रह, उच्च-स्थान, पाद-प्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, कायशुद्धि, वाक्शुद्धि, मनशुद्धि तथा आहारशुद्धि-ये नौ प्रकार की भक्ति कहलाती है। यह नवधाभक्ति पुण्य की जननी है तथा इसलिए पुण्य को उत्पन्न करनेवाली है । उस दान के समय राजा ने वे नव भक्तियाँ की थीं । जो विशुद्ध हो, प्रासुक हो, मिष्ट हो, कृतकारित आदि दोषों से रहित हो, मनोज्ञ हो, छहों रसों से परिपूर्ण हो एवं ध्यान-अध्ययन आदि को बढ़ानेवाला हो-उसे श्रेष्ठ आहार कहते हैं । उस राजा ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए उन दोनों चारण-मुनियों को विधिपूर्वक ऊपर लिखे हुए सातों गुणों से युक्त तृप्त करनेवाला उत्तम आहार दिया । दोनों रानियों ने भी उस श्रेष्ठ दान की अनुमोदना कर भक्तिपूर्वक मुनियों की सुश्रूषा, नमस्कार, विनय आदि के द्वारा यथेष्ट पुण्य-सम्पादन किया था । सत्यभामा ब्राह्मणी ने दीन होने पर भी बड़ी भक्ति से आदर-सत्कार आदि के द्वारा उन मुनिराजों की सेवा की थी, इसलिये उसने भी रानियों के समान ही पुण्य-सम्पादन किया था। इस प्रकार उन लोगों ने अच्छे परिणामों से पात्र-दान देकर उसी समय महापुण्य सम्पादन किया था। ठीक ही है, क्योंकि अच्छे परिणामों से क्या नहीं प्राप्त हो सकता है ? उन दोनों मुनिराजों ने समभावों से आहार लिया तथा अपने पदार्पण से उस गृह को पवित्र कर शुभ आशीर्वाद दे वे आकाश-मार्ग से गमन कर गए । उस आहार दान से उत्पन्न आनन्द-रस से तृप्त-हृदय वह राजा अपने जीवन को कृतकृत्य एवं गृहस्थाश्रम को सफल मानने लगा
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