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मनुष्यों को हलाहल विष खा लेना अच्छा है, सर्प का साथ करना अच्छा है, जलती हुई अग्नि या अथाह सागर में कूद पड़ना अच्छा है, परन्तु नीच मनुष्यों की संगति करना अच्छा नहीं है ॥२०॥ ऐसा विचार कर पवित्र हृदयवाली वह धीर-वीर सती सत्यभामा कपिल से कुछ विरक्त-सी होकर अपने चित्तम में सदा खेद-खिन्न रहने लगी । इधर कर्मयोग से धरणीजड़ दरिद्र हो गया था एवं उसने जब कपिल के वैभव की बात सुनी तो धन की इच्छा से वह उसके पास आया । कपिल ने लोगों से कहा कि ये मेरे पिता हैं, तो
लोगों ने उसका आदर-सत्कार किया । वह ब्राह्मण सुखपूर्वक कपिल एवं सत्यभामा के घर पर रहने | लगा । एक दिन सत्यभामा ने धरणीजड़ ब्राह्मण को बहुत-सा धन देकर बड़ी विनय के साथ उससे कपिल
के कुल के सम्बन्ध मे पूछा । उत्तर में ब्राह्मण ने कहा-'हे पुत्री । यह तेरा पति कपिल मेरी दासी का पुत्र है। इस दुष्ट ने ब्राह्मण का कपट भेष बना लिया है।' आचार्य कहते हैं-देखो, कुटिला या पर-स्त्री आदि से उत्पन्न हुए मूल् के गुप्त महापाप भी कुष्ठ रोग के समान शीघ्र ही प्रकट हो जाते हैं । यह सुनकर उस पुण्यवती सत्यभामा ने अपने शील-भंग होने के डर से कपिल का त्याग कर दिया एवं राजमहल में जाकर राजा की शरण ली । इतने दिन तक उसने कपट करने का पाप किया था, इसलिए राजा ने दुष्ट कपिल को गर्दभ (गधे) पर चढ़वा कर अपने राज्य से बाहर निकाल दिया । दान-पुण्य आदि गुणों से शोभायमान एवं शीलव्रत से विभूषित वह सती (पतिव्रता) सत्यभामा राजमहल में ही सुखपूर्वक रहने लगी।
अथानन्तर-पुण्योपार्जन करने में तत्पर वह श्रीषेण राजा पात्र-दान देने के लिए प्रतिदिन स्वयं | रा द्वारापेक्षण करता था ॥३०॥ एक दिन अमितगति एवं अरिंजय नाम के दो आकाशगामी चारण मुनि उसके गृह पर पधारे । वे दोनों मुनिराज सब प्रकार के परिग्रहों से रहित थे; परन्तु गुणरूपी सम्पदाओं से रहित नहीं थे। तपश्चरण से उनका समस्त शरीर कश हो गया था एवं वे रागद्वेष से सर्वथा विमुक्त थे। वे संसार की विभूति में निर्लोभी थे, तथापि मोक्ष-साम्राज्य प्राप्ति की उन्हें बड़ी लिप्सा थी। वे समस्त जीवों का हित करनेवाले थे, धीर-वीर थे एवं ज्ञान-ध्यान में सदा तत्पर रहते थे । यद्यपि वे स्त्री की वाँछा से रहित थे, तथापि मुक्ति रूपी स्त्री में बड़े ही आसक्त थे । मनुष्य एवं देव सब उनकी पूजा करते थे; वे तीनों काल सामायिक करते थे तथा रत्नत्रय से सुशोभित थे। वे इच्छा तथा अहंकार से रहित थे, मूलगुण तथा उत्तरगुण की खानि थे तथा भव्य-जीवों को संसाररूपी समुद्र से पार कराने के लिए जहाज के समान थे।
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