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________________ शां ति ना थ पु रा ण श्री हैं तथा व्रतों को धारण करता है । फिर प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने से यह मनुष्य मुक्ति रूपी, स्त्री को प्रसन्न करनेवाले पूर्ण महाव्रतों को धारण करता है । तदनन्तर सम्यग्दर्शन का घात करनेवाली सातों प्रकृतियों का नाश कर यह जीव कर्म-रूपी शत्रुओं का नाश करनेवाला उत्तम एवं मोक्ष प्राप्त कराने में अति. सक्षम क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । इसके पश्चात् क्षायिक चारित्र से विभूषित हुआ वह सुयोग्य मुनि क्षपक श्रेणी में उत्तीर्ण होता है एवं शुक्लध्यानरूपी खड्ग से मोहरूपी शत्रु का नाश करता है । तदनन्तर वे मुनिराज दूसरे शुक्लध्यान से बाकी के तीनों घातिया कर्मों का नाश करते हैं तथा समस्त लोक- अलोक को प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं । उस समय वे नव केवल - लब्धियों के स्वामी हो जाते हैं, अनन्त गुणों के सागर हो जाते हैं एवं तीनों लोकों के द्वारा पूज्य हो जाते हैं। तदनन्तर वे धर्मोपदेश दिया करते हैं ॥१५०॥ फिर वे केवली भगवान तीसरे शुक्लध्यान से योगों का निरोध करते शुक्लध्यान से समस्त कर्मों का नाश करते हैं । कर्म एवं शरीर का सम्बन्ध छूट जाने से वे एरण्ड के बीज के समान लोक के ऊपरी भाग तक ऊपर को गमन करते हैं तथा अनन्त स्वाभाविक गुणों को प्राप्त होते हैं । वहाँ पर वे सदा काल (हमेशा) सब तरह की बाधाओं से रहित, उपमा - रहित, आतंक - रहित एवं विषयों से रहित अविनाशी अनन्त सुख का उपभोग किया करते हैं । सम्यक्त्व आदि अष्ट अरूपी, नित्य, निरन्जन, सिद्ध भगवान मुक्ति-लक्ष्मी के साथ अनन्त काल तक सदा विराजमान गुणमय; रहते हैं । रत्नत्रय के सम्बन्ध से ऐसे भव्य-जीव अनुक्रम से संसाररूपी समुद्र को पार कर मोक्ष में जा विराजमान होते हैं एवं वहाँ पर सदा अनन्त सुख का अनुभव किया करते हैं।' इस प्रकार जन्म से लेकर निर्वाण प्राप्त करने तक का कथन करनेवाली श्री जिनेन्द्रदेव की अमृत वाणी का पान कर अमिततेज विद्याधर मोक्ष प्राप्त करने के समान सुख का अनुभव करने लगा। उस समय काल-लब्धि के प्राप्त हो जाने से अमित ने स्वर्ग-मोक्ष के कारण सातों तत्वों का श्रद्धान करने योग्य सम्यग्दर्शन धारण किया । उस भव्य विद्याधर ने अपनी आत्मा का धर्म प्रकट करने के लिए अपने योग्य गृहस्थों के उत्तम व्रत धारण किये । तदनन्तर उस राजा ने अपने दोनों हाथ मस्तक से लगा कर भगवान को नमस्कार किया । तत्पश्चात् उसने अपने पहिले (पूर्व) भव - सम्बन्धी प्रश्न पूछे । वह पूछने लगा- 'हे भगवन् ! हे केवलज्ञान से विभूषित परमदेव ! मेरे चित्त में आप से अन्य कुछ पूछने की इच्छा है ॥ १६० ॥ हे देव ! इस अशनिघोष विद्याधर शां ति ना थ पु रा ण ४७
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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