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________________ ॐ . हैं एवं सब जीवों का मंगल करनवाले हैं ॥१३०॥ असत्य मनोयोग, असत्यवचन योग, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग-ये सब तरह के पापों को उत्पन्न करनेवाले हैं, अन्य जीवों को दुःख देनेवाले हैं एवं दष्ट हैं: इसलिए बुद्धिमानों को अपने प्राणों की हानि होने पर भी असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए । जीवों का दुःख तथा क्लेश का सागर प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध योगों के द्वारा होता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव ने निरूपण किया है। मन, वचन, काय से उत्पन्न हुआ यह योग अकेला ही ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान में सातावेदनीय-कर्म का बन्ध करता है । अशुभयोग से इहलोक तथा परलोक दोनों में अत्यन्त क्लेश, दुःख तथा शोक आदि का महासागर तथा नरक का कारण महापाप उत्पन्न होता है । शुभयोग से विवेकी पुरुषों को चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर की विभूति देनेवाले तथा सब तरह के सुख प्रगट करनेवाले पुण्य-कर्म का बन्ध होता है । जिस प्रकार अपनी स्त्री आसक्त होकर अपने पति के पास आ जाती है, उसी प्रकार जो इन योगों को रोककर परमात्मा का ध्यान करते हैं; उनके पास मुक्तिरूपी स्त्री अपने आप आ जाती है । हे भव्य ! स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त करने के लिए ध्यान तथा अध्ययनरूपी जाल से विषयरूपी मैदान में दौड़ते हुए इन योगरूपी हिरणों को तू बाँध । हे वत्स ! आज मैंने मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय तथा योग-ये पाँच बन्ध के कारण बतलाए हैं, ये सब पाप उत्पन्न करनेवाले हैं, समस्त दुःखों के समुद्र हैं, तीव्र हैं, दुष्ट हैं तथा चारों गतियों में परिभ्रमण करानेवाले हैं । विषयों में अन्धा हुआ यह मनुष्य ऊपर लिखे हुए मिथ्यात्व आदि पाँच कारणों के द्वारा एक सौ बीस कर्मों की असह्य प्रकृतियों का सदा बन्ध करता रहता है ॥१४०॥ उन कर्मों से घिरा हुआ तथा दुःख से व्याकुल यह जीव अशुभ-कर्म के उदय से सदा पहिले मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहता हुआ संसाररूपी वन में परिभ्रमण किया करता है । यह संसाररूपी समुद्र भयानक लहरों से भरा हुआ है, नरक ही इसके रंध्र हैं, जन्म-मरण एवं बुढ़ापा ही इसकी मछलियाँ हैं, इस समुद्र का कहीं अन्त नहीं है एवं अत्यन्त कठिनता से इसके पार जाया जा सकता है । ऐसे समुद्र में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र सहित, संयम रहित, यह भव्य अथवा अभव्य जीव रात-दिन डूबता एवं तैरता रहता है। किसी योग्य समय काललब्धि आदि को प्राप्तकर तथा सम्यग्दर्शन का घात करनेवाली सातों प्रकृतियों का उपशम कर, सुमार्ग को दिखानेवाला उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । तदन्तर यह मनुष्य अप्रत्याख्यानावरण-रूपी पाप-कर्म के क्षयोपशम से सब तरह के सुख देनेवाले बारह 4444. 44
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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