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द्वारा इनका नाश शत्रु के समान कर देना चाहिये । व्रतों में मल वा दोष उत्पन्न करनेवाली मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को 'प्रमाद' कहते हैं । यह प्रमाद मुख्यता से छठे गुणस्थान में बन्ध का कारण है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ-इस प्रकार कषाय के कुल सोलह भेद हैं ॥१२०॥ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद तथा नपुंसक वेद-ये नव नौ-कषाय कहलाते हैं । इनमें से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ सम्यग्दर्शन का घात करते हैं; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ अणुव्रतों का घात करते हैं; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ सकल संयम का घात करते हैं एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । श्री जिनेन्द्रदेव ने इन घोर कषायों को चारों गतियों में परिभ्रमण करानेवाले एवं अत्यन्त दुःख देनेवाले स्थितिबन्ध के कारण बतलाए हैं । ये पच्चीस कषाय पाप-कर्म के कारण हैं, सातवें नरक के लिए मार्ग दिखलानेवाले हैं, अनेक भवों में परिभ्रमण करानेवाले हैं, क्रूर हैं, अशुभ-कर्मों को उत्पन्न करनेवाले हैं एवं समस्त दोषों के भण्डार हैं। इसलिए इनको तू क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच आदि शस्त्रों के द्वारा शीघ्र ही नष्ट कर दें । इस प्राणी के जब तक संज्वलन कषाय का उदय रहता है, तब तक अर्थात् सातवें, आठवें, नौवें एवं दशवें गुणस्थान में ये संज्वलन कषाय मुख्यतया से बन्ध के कारण हैं । मन-वचन-काय के द्वारा आत्मा के प्रदेशों को जो परिस्पन्दन होता है, उसको 'योग' कहते हैं । यह योग ही संसार का कारण है एवं जीवों || रा को शुभ-अशुभ कर्म का फल देनेवाला है । यह योग पन्द्रह प्रकार का है । चार प्रकार का मनोयोग, चार || प्रकार का वचनयोग एवं सात प्रकार का काययोग-यह पन्द्रह प्रकार का योग जीवों को दुःख देनेवाला है । सत्यमनोयोग एवं असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग एवं अनुभयमनोयोग-ये चार प्रकार के 'मनोयोग' हैं तथा सत्यवचन योग, असत्यवचन योग, उभयवचन योग एवं अनुभयवचन योग-ये सदा शुभाशुभ के देनेवाले चार प्रकार के 'वचनयोग' हैं । औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियकमिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारकमिश्र काययोग एवं कार्मण काययोग-ये सात प्रकार के 'काययोग' कहलाते हैं । इनमें से सत्यमनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयमनोयोग एवं अनुभयवचन योग-ये चार योग चतुर पुरुषों के ग्रहण करने योग्य हैं; क्योंकि ये ही धर्म ही रक्षा करनेवाले हैं, उत्तम
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