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वैनयिक, संशय एवं अज्ञान-ये पाँच भेद बतलाये हैं। संसार के समस्त तत्व क्षणिक हैं एवं कर्मों का न तो कोई कर्ता है एवं न भोक्ता है । इसी प्रकार बौद्धों के द्वारा एकान्त कथन करना 'एकान्त मिथ्यात्व' कहलाता है । देव रागी हैं, गुरु परिग्रह सहित होता है एवं हिंसा से धर्म होता है-'इस प्रकार वेद एवं ब्राह्मण से उत्पन्न होनेवाला कथन करना तथा पशुओं की बलि के द्वारा यज्ञादि का करना 'विपरीत मिथ्यात्व' कहा जाता है । मूर्ख लोग, जो श्री जिनेन्द्रदेव तथा कुदेवों में, सुगुरु एवं कुगुरु में एक-सा विनय करते हैं, वह तपस्वियों के आश्रय से उत्पन्न हुआ' वैनयिक मिथ्यात्व' है । केवली कवलाहारी होते हैं एवं स्त्रियों को भी मोक्ष होता है, ऐसा कथन पाखण्डियों के द्वारा कहा हुआ 'संशय मिथ्यात्व' है । देव-कुदेव, धर्मअधर्म, सुगुरु-कुगुरु एवं शास्त्र-कुशास्त्र का ज्ञान न होना, सो म्लेच्छों से उत्पन्न होनेवाला 'अज्ञान मिथ्यात्व' है। श्री जिनेन्द्रदेव ने इस प्रकार पाँच प्रकार के मिथ्यात्व कहे है। यह मिथ्यात्व समस्त दोषों का भण्डार है; इसलिए बुद्धिमानों को इसका त्याग सर्प के समान कर देना चाहिये । इसी मिथ्यात्व से पाप को उत्पन्न करनेवाली मूढ़ता एवं दुष्टता उत्पन्न होती है तथा इसी मिथ्यात्व से विवेक, धर्म का ज्ञान, चारित्र आदि श्रेष्ठ गुण सब नष्ट हो जाते हैं ॥११०॥ इसलिये हे भव्य ! तू मोक्ष प्राप्त करने के लिए सब तरह के पापों को उत्पन्न करनेवाले इस मिथ्यात्वरूपी पर्वत को सम्यग्दर्शनरूपी वज्र की चोट से चूर-चूर कर दे । मनुष्यों को चारों गतियों में घुमानेवाले यह मिथ्यात्व, पहिले मिथ्यात्व गुणस्थान में मुख्यता से बन्ध का कारण है । पाँचों इन्द्रियों तथा मन-इन छः को वश में न करना एवं त्रस स्थावर के भेद से छः प्रकार के जीवों की रक्षा न करना, यह बारह प्रकार का असंयम कहलाता है । जीवों का घात करनेवाले पंचेन्द्रियों के विषयों में मन, वचन, काय-इन तीनों योगों के द्वारा मनुष्यों की जो उच्छंखल (इच्छानुसार) प्रवृत्ति है, वह अशुभास्रव करनेवाला असंयम कहलाता है । यह असंयम दुराचारों को उत्पन्न करनेवाला है तथा इहलोक एवं परलोक-दोनों लोकों में दुःख देनेवाला है। इसलिये तू अपनी श्रेष्ठ व्रतरूपी तलवार के बल से इसे शत्रु के समान नष्ट कर दे । जीवों के जब तक अप्रत्याख्यानावरण नामक चारित्र मोहनीय-कर्म का उदय रहता है, तब तक अर्थात् चौथे गुणस्थान तक यह असंयम मुख्यतया बन्ध का कारण गिना जाता है । चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, स्नेह एवं निद्रा-ये पन्द्रह प्रमाद कहलाते हैं । ये सब प्रमाद व्यर्थ में पापों को उत्पन्न करनेवाले हैं एवं व्रतों का घात करनेवाले हैं। इसलिये चतुर पुरुषों को ध्यान एवं अध्ययन के
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