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________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण का हित करनेवाले हैं, आप ही देवों के द्वारा पूज्य हैं एवं आप ही इस संसार में उत्तम हैं । मुनिलोग आपकी ही सेवा करते हैं, आप ही प्राणियों के गुरु हैं एवं आप ही इस संसार भर में समस्त तत्वों को प्रकाशित करनेवाले दीपक हैं ॥९०॥ हे श्री जिनेन्द्रदेव ! आप अतिशय पुण्यवान हैं; इसलिए आपको नमस्कार हो । हे जगत्नाथ ! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो । हे देव ! रत्नत्रयरूपी निधि को लेकर भव्य जीव आपकी दिव्य-ध्वनिरूपी महानौका पर चढ़ कर संसार रूपी सागर से पार हो जाते हैं एवं मोक्षरूपी द्वीप में जा पहुँचते हैं । हे स्वामिन् ! जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के बिना रात्रि का अन्धकार दूर नहीं हो सकता है, उसी प्रकार आप के दिव्य ध्वनिरूपी दीपक के बिना हम लोगों के मन अन्धकार कभी दूर नहीं हो सकता । जिस प्रकार संसार-मार्ग में चलनेवाले जीव मेघों की वर्षा से सुखी होते हैं, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने की इच्छा रखनेवाले भव्य जीव आप की दिव्य ध्वनि की वर्षा से सुखी होते हैं । हे श्री जिनेन्द्रदेव ! जिस प्रकार मेघ वर्षा के द्वारा चातकों की प्यास बुझाता है, उसी प्रकार आप भी अपनी दिव्य-ध्वनि से संसार में भ्रमानेवाले भोगों से उत्पन्न हुई हमारी तृष्णा को दूर करते में सक्षम हैं । हे जगत्पूज्य ! हे श्री जिनेन्द्रदेव ! आप हम सरीखे भव्य जीवों के लिए तत्वों से भरे हुए धर्म के स्वरूप का निरूपण कीजिए।' इस प्रकार पूछने पर श्री जिनेन्द्रदेव दिव्य-ध्वनि के द्वारा अपनी सारगर्भित वाणी में धर्म का स्वरूप कहने लगे। जिस प्रकार मेघों की वर्षा से चातक पक्षी सन्तुष्ट होते हैं; उसी प्रकार भगवान की दिव्य - ध्वनि से भव्य जीव भी सन्तुष्ट होते हैं। भगवान तत्वों का निरूपण कर कहने लगे- 'हे विद्याधरों के राजा ! तू अपना मन निश्चल कर सुन, मैं तेरे लिए धर्म एवं तत्वों से भरा हुआ कुछ ज्ञान निरूपित करता हूँ । जीवों को घोर दुःख देनेवाला यह संसार अनन्त एवं अनादि है । अभव्यों के लिए तो इसका कभी अन्त ही नहीं होता, किन्तु भव्य जीवों के लिए इसका अन्त हो जाता है। इस संसार में घोर दुःख देनेवाले कर्म हैं; उन कर्मों के अनेक भेद हैं। मूल-भेद तो आठ हैं एवं उत्तर-भेद एक सौ अड़तालीस हैं ॥१००॥ उन कर्मों के कारण तथा बन्ध करानेवाले, आस्रव हैं, जो कि सब तरह के पाप उत्पन्न करनेवाले एवं मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय आदि के योग के भेद से अनेक प्रकार के हैं । उनमें से ज्ञान एवं चारित्र का घात करनेवाला, धर्म एवं शुभ-अशुभ तत्वों में मूढ़ता उत्पन्न करनेवाला मिथ्यात्व पाँच प्रकार का कहा गया है। श्री जिनेन्द्रदेव ने धर्म का नाश करनेवाले इस मिथ्यात्व के - एकान्त, विपरीत, श्री शां ति ना थ पु रा ण ४३
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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