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________________ EFb कर तथा संसार-मात्र का हित करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया एवं एक साथ मिल कर बैठ गये। उसी समय पुण्यवती सती अशनिघोष की माता आसुरी उसी मार्ग से दावानल से जली हुई लता के समान दग्ध सुतारा को लेकर वहाँ आई । वह श्रीविजय एवं अमिततेज से कहने लगी कि मेरे पुत्र से घोर अपराध हो गया है, आप उसे क्षमा कर दीजिए । यह कह कर उसने सुतारा रानी को उन दोनों को सौंप दिया । श्री जिनेन्द्रदेव के सामने जब पशुओं का जाति एवं स्वभाव से उत्पन्न घोर बैर भी नष्ट हो जाता है, तो फिर भला मनुष्यों का बैर तो नष्ट हो ही जाएगा । श्री जिनेन्द्रदेव के समीप दुर्भिक्ष, इति, भीति आदि सब नष्ट हो जाते हैं, फिर भला इस संसार में उनके समीप जाकर बैर-भाव का नष्ट हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है ॥४०॥ श्री जिनेन्द्रदेव को पाकर अनादि काल से बंधे हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं; फिर उनकी दिव्य-ध्वनि सुनकर मनुष्यों का बैर छुट जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । श्रीजिनेन्द्रदेव का ध्यान करने में तत्पर ऐसे भव्य जीव अत्यन्त दुर्निवार यमराज का भी लीलामात्र में निवारण कर सकते हैं, तो फिर भला शुभ-कर्मों के उदय से क्या शत्रु का निवारण नहीं किया जा सकता है ? भगवान की दिव्य-ध्वनि सुनकर यदि सिंह, हिरण आदि क्रूर जीव भी परस्पर प्रेम करने लग जाते हैं; तो फिर भला दो मनुष्यों में परस्पर प्रेम क्यों नहीं हो सकता है ? श्री जिनेन्द्रदेव के माहात्म्य से प्राणियों के शरीर को नष्ट करनेवाली सब तरह की विघ्न-बाधा भी नष्ट हो जाती हैं, तो फिर भला इस संसार में उन दोनों को किसी प्रकार का विघ्न किस प्रकार हो सकता था? इसलिये बुद्धिमानों को यमराज तथा बुरे विनों को दूर करने के लिए इहलोक एवं परलोक दोनों का हित करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेव का ही स्मरण करना चाहिए। ... अथानन्तर अमिततेज विद्याधर ने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया एवं तत्वार्थों का मर्म जानने के लिए हाथ जोड़ कर धर्म का स्वरूप पूछा । वह पूछने लगा-'हे भगवन् ! यह असार संसार-रूपी समुद्र तीव्र दुःखरूपी लहरों से भरा हुआ है । घोर क्रोध-मान आदि कषायरूपी मगरमच्छों से व्याप्त है । हे नाथ ! इसको कौन पार कर सकता है ? हे देव ! आप संसाररूपी सागर के पार हो चुके हैं; आप ही संसार में एकमात्र बन्धु हैं एवं आप ही सब जीवों का हित करने में तत्पर हैं। इसलिए आपके सिवाय इस विषय में अन्य किसी से पूछा नहीं जा सकता । हे प्रभो! आप ही संसार के नाथ हैं, आप ही तीनों लोकों 4 Fb FF F F
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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