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उस युद्ध में कितने ही लोगों के अंग एवं सन्धियाँ छिन्न-भिन्न हो गई थीं एवं उसमें से कितने ही उपवास व्रत धारण कर तथा श्रीजिनेन्द्रदेव का स्मरण करते हुए स्वर्ग चले गये थे। जिनके शरीर बाणों से छिन्न-भिन्न हो गये थे, ऐसे कितने ही धीर-वीर योद्धा भाव-दीक्षा लेकर तथा ध्यान धारण कर स्वर्ग में जा विराजमान हुए थे । उस युद्ध में तीव्र दुःख से दुःखी कितने ही लोग पन्चनमस्कार मन्त्र का ध्यान कर उत्तम देवगति को प्राप्त हुए थे । वह युद्ध रौद्र-ध्यान से उत्पन्न हुआ था एवं अत्यन्त पापों को उत्पन्न करनेवाला था; इसलिये धर्म-ध्यान में तत्पर रहनेवाले हम (लेखक) से उसका वर्णन नहीं किया जाता । इस प्रकार अत्यन्त भय उत्पन्न करनेवाला वह संग्राम पन्द्रह दिनों तक होता रहा; अन्त में अन्याय से उत्पन्न हुए पाप के कारण सब योद्धा शिथिल पड़ने लग गये । यह समाचार सुनकर वह पापी अशनिघोष विद्याधर क्रोध से अन्धा होकर स्वयं युद्ध करने के लिए आया । वह बुद्धिहीन एवं कुमार्गगामी विद्याधर शत्रु को पाकर अपनी ही हानि करनेवाला तथा अपयश एवं पाप का कारण ऐसा घोर युद्ध करने लगा । उस युद्ध में जब श्रीविजय ने अपने दो रूप बनाए, तब अशनिघोष ने भी अपनी 'भ्रामरी' विद्या से अपने दो रूप बना लिए । परन्तु अशनिघोष के वे दोनों ही रूप श्रीविजय ने खण्डित कर दिए । उनके खण्डन करते ही उनके चार रूप प्रकट हो गए; इस प्रकार खण्डन करते-करते अशनिघोष के रूपों की दूनी-दूनी वृद्धि होती गई । इस प्रकार समस्त युद्ध -स्थल 'भ्रामरी' विद्या के प्रभाव से अशनिघोष के अनेक रूपों से यम के घर के समान भर गया ॥७०॥ उसी समय रथनूपुर के राजा अमिततेज को महापुण्य कर्म के उदय से समस्त राज्य को बढ़ानेवाली वह विद्या सिद्ध हो गई । तदनन्तर अमिततेज विद्याधर अपने पुत्र के साथ युद्ध-स्थल पर आया एवं आते ही उसने 'भ्रामरी' विद्या का नाश करने के लिए 'महाज्वाला' विद्या को आज्ञा दी । अशनिघोष को युद्ध करते हुए पन्द्रह दिन हो गये थे; अन्त में वह 'महाज्वाला' विद्या के प्रभाव को सह नहीं सका; इसलिये अशुभ-कर्मों के उदय से वह भयभीत हो गया । वह युद्ध से हट गया एवं दूर भाग गया। विजय नाम के उत्तम नाभेव पर्वत पर भव्य-जीवों का शरणभूत श्री जिनेन्द्रदेव का समवशरण आया हुआ था । वह अशनिघोष विद्याधर भागकर वहाँ जा पहुँचा । अमिततेज आदि भी क्रोध से भरे उसके पीछे-पीछे गये. परन्त वहाँ पर मानस्तम्भ को देखते ही सब शान्त हो गये एवं सबके चित्त भी स्वस्थ हो गये । उन सब लोगों (अशनिघोष, अमिततेज आदि) ने अपना-अपना बैररूपी विष त्याग
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