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उसे अपना असली रूप दिखलाया । उसके असली रूप को देखकर वह बहुत ही व्याकुल हो गई एवं कहने लगी-'पापी, दुष्ट, मूर्ख ! तू कौन है ? मुझे यहाँ क्यों ले आया ?' ॥१०॥ इधर अशनिघोष की आज्ञा से बैताली विद्या सुतारा का रूप बना कर उसकी जगह बैठा गई थी। जब श्रीविजय उधर से लौटा एवं सतारा (बैताली) को खेद-खिन्न देखा, तो उसने उससे पूछा-'हे सुन्दरमुखी ! तेरी अवस्था ऐसी दुःख को सूचित करनेवाली क्यों हो रही है ?' इसके उत्तर में सुतारा (बैताली) ने कहा-'नाथ ! मुझे कुक्कुट सर्प ने काट लिया है।' यह कह कर उस दुष्टा ने मायाचारी (विद्या) से अपने को मरण-तुल्य बना लिया । पोदनपुर के राजा श्रीविजय का हृदय बहुत ही कोमल था । सर्प के विष को मणि, मन्त्र, औषधि आदि के द्वारा भी असाध्य होते देख कर वह उसके साथ मरने के लिए तैयार हो गया। उसने लकड़ी इकटठी कर चिता बनाई, सूर्यकानत मणि के संयोग से अग्नि लगाई एवं शोक से व्याकुल होकर वह स्वयं रानी के साथ उसमें जा बैठा । उसी समय उसके पुण्य-कर्म के उदय से उस उपद्रव को शान्त करने के लिए दो उत्तम विद्याधर वहाँ पर आ पहुँचे । उन दोनों में एक ने अपने पराक्रम से विच्छेदनी विद्या का स्मरण कर उस बैताली विद्या को मार भगाया । वह बैताली विद्या उसके सामने ठहर न सकी एवं राजा श्रीविजय को अपना असली-रूप दिखा कर अदृश्य हो गई। यह सब देख कर राजा को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ एवं उसने उस विद्याधर से पूछा-'यह क्या है ?' इसके उत्तर में वह विद्याधर कहने लगा-॥२०॥" इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पुण्यवान एवं मनोहर विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में ज्योतिप्रभ नाम का एक सुन्दर नगर है । वहाँ का राजा सम्भिन्न मैं हूँ एवं पुण्य-कर्म के उदय से मेरी सर्व-कल्याणी नाम की रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ यह द्वीपशिख नाम का मेरा पुत्र है । मैं सदा से ही विद्या एवं श्रेष्ठ पुण्य से शोभायमान सर्वोत्तम अमिततेज विद्याधर का अनुचर बना आ रहा हूँ। आज मैं पुण्य सम्पादन करने के लिए पर्वतों पर यात्रा कर आकाश-मार्ग से आ रहा था । मार्ग में मैंने एक विमान में से शोक के शब्द आते हुए सुने वे शब्द नारी के थे एवं बड़ी करुणा एवं दुःख से भरे हुए थे । वह कह रही थी-'हे स्वामी श्रीविजय ! आप कहाँ हैं ? हे रथनूपुर के राजन ! आप कहाँ हैं? मेरी रक्षा कीजिए।' तदनन्तर मैं उस विमान के समीप गया एवं उस पुरुष से कहा-'तू कौन है एवं किसको हरकर ले जा रहा है?' तब वह क्रोध से कहने लंगा-'मैं चमरचन्च नगर का राजा हूँ, अशनिघोष विद्याधर मेंरा नाम है एवं मैं इसे जबरदस्ती ले जा रहा
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