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द्वारा सेवन करने योग्य है. इसलिये गणी परुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए समस्त पापों को त्याग कर सदैव धर्म का सेवन करते रहना चाहिये । श्री शान्तिनाथ भगवान जरा-रहित हैं, देवों के द्वारा पूज्य हैं, समस्त तत्वों को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान हैं, इन्द्रिय-दमन, शान्ति एवं संयम के स्थान हैं, सब तरह के सुख देनेवाले हैं, समस्त दोषों से रहित हैं एवं स्वर्ग-मोक्ष के कारण हैं । ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान की समस्त निर्मल कीर्ति का वर्णन कर मैं उनकी स्तुति करता हूँ।
श्री शान्तिनाथ पुराण में अमिततेज को राज्य, प्रजापति ज्वलनजटी का मोक्ष-गमन, श्रीविजय के विनों के निवारण करने का वर्णन करनेवाला तीसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥३॥ . . .
चौथा अधिकार ज्ञानादि गुणों का घात करनेवाले घातिया-कर्मों को शान्त करनेवाले एवं संसार में शान्ति स्थापना करानेवाले श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्रदेव को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ अथानन्तर-किसी एक दिन श्रीविजय ने माता के उपदेश से अपना कार्य सिद्ध करने के लिए आकाशगामिनी विद्या सिद्ध की । उस विद्या की सहायता से वह रानी सुतारा के साथ विमान में बैठकर क्रीड़ा करने के लिए ज्योतिर्वन में गया । वहाँ पर वह अपनी रानी के साथ 'मनोहर' नाम के वन में आनन्द से इच्छानुसार लीलापूर्वक विहार कर रहा था । इधर चमरचन्च नामक नगर में विद्याधरों का राजा इन्द्राशनि राज्य करता था। उसके पुण्य-कर्म के उदय से उसे आसुरी नाम की रानी प्राप्त हुई थी। उन दोनों के अशनिघोष नाम का पुत्र हुआ था, उसने भी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर ली थी एवं उसके प्रभाव से वह आकाश-मार्ग से अपने नगर को आ रहा था । उस वन में सुतारा को देख कर वह उस पर मोहित हो गया एवं छलपूर्वक ले जाने का प्रयास करने लगा। उसने श्रीविजय को एक बनावटी हिरण दिखलाया । अशुभ-कर्म के उदय से श्रीविजय क्रीड़ा करता हुआ उस हिरण के पीछे चला गया । पापी अशनिघोष विद्या के प्रभाव से श्रीविजय का रूप बना कर सुतारा के सम्मुख गया एवं कहने लगा-'हे सुन्दरी, हे प्रिये ! वह हिरण तो वायु के समान उड़ कर भाग गया, परन्तु भाग्य से मैं लौट आया । अब सूर्य भी अस्त होने आया है। इसलिये चलो, घर लौटें।' इस प्रकार कह कर उस पापी विद्याधर ने सुतारा को अपने विमान में बिठा लिया एवं थोड़ी दूर जाकर
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