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________________ .2 4 वह नमक आदि का बोझ लादता रहा । जब वह भैंसा बोझ लादते-लादते बहुत थक गया एवं बोझ लादने योग्य न रहा, तब उस व्यापारी ने भी उसकी ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखना आरम्भ किया तथा उसे घास-पानी देना बन्द कर दिया । अपनी कुक्षि (पेट) फट जाने के कारण वह मर गया एवं अशभ बैर-बन्ध के कारण किसी नगर के श्मशान में राक्षस हुआ । वहाँ उसे जाति-स्मरण भी हुआ था । उसी नगर में कुम्भभीम राज्य करता था । पाप-कर्म के उदय से कुम्भ सदा भयानक नरक को ले जानेवाले मांससेवन में तल्लीन रहता था । कुम्भ के रसोइया का नाम रसायन-पाक था । एक दिन उस रसोइया को पशु का मांस नहीं मिला; इसलिये उसने राजा के रोष के डर से किसी मरे हुए बालक का मांस बना कर राजा को खाने के लिए दे दिया । उसी दिन से वह पापी मनुष्य के मांस का लोलुपी हो गया था । नरक गति में जानेवाले एवं नर-मांस के लोलुपी उस कुम्भभीम ने स्वयं ही मांस पकाना प्रारम्भ किया था। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि राजा प्रजा की रक्षा करनेवाला होता है। परन्तु प्रजा की रक्षा करना तो दूर रहा, वह पापी अपनी प्रजा का ही भक्षण करने लगा । राजा को दुष्ट समझकर मन्त्रियों ने उस पापी का परित्याग कर दिया था । सो ठीक ही है, क्योंकि घोर दुःख देनेवाले पाप का फल इसी जन्म में मिल जाता है । उस रसोइया के पकाये हुए मांस से जीवित रहने वा उक्त क्रूर राजा ने अपने रसोइये को मार कर ऐसी विद्या सिद्ध की, जिससे ऊपर लिखा हुआ भैंसा का जीव राक्षस उसके वश में हो गया ॥१५०॥ वह दुष्ट निर्दयी एवं नरक जानेवाला कुम्भ उसी नगर में चारों ओर घूमने लगा एवं उस राक्षस की सहायता | से वह अपनी भोली-भाली प्रजा को ही खाने लगा । उस समय उसके भय से उसकी सारी प्रजा अपनी रक्षा के लिए शीघ्रता के साथ उस नगर को छोड़ कर कारकट नामक नगर में चली गयी थी । परन्तु वह पापी वहाँ जाकर भी प्रजा का भक्षण करने लगा था, इसलिए उसी समय से उस नगर का नाम 'कुम्भ कारकट' नगर पड़ गया था । वह पापी जिस मनुष्य को भी देखता था, उसी को खा जाता था; इससे डरकर वहाँ की प्रजा ने उसको एक निश्चित जगह पर ठहराने का प्रबन्ध किया । उसके आहार के लिए प्रतिदिन एक मनुष्य एवं एक गाड़ी अन्न देना प्रजा ने स्वीकार किया था। उसी नगर में चन्द्रकौशिक नाम का एक ब्राह्मण रहता था । संसार-संबंध को बढ़ानेवाली उसकी स्त्री का नाम सोमश्री था । उन दोनों के पुण्य-कर्म के उदय से तथा बहुत दिनों तक भूतों की उपासना करने से मण्डकौशिक नाम का पुत्र उत्पन्न 444 ३४
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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