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________________ . . 4 4 दश प्रकार के धर्म धारण करने लगे । वे मुनिराज ग्यारह अंग तथा चौदह पूर्व से उत्पन्न हए ज्ञान का अभ्यास करने लगे, धर्मध्यान तथा शक्लध्यान दोनों का उत्तम अभ्यास करने लगे तथा अत्यन्त घोर तथा उत्तम तपश्चरण करने लगे। उन्होंने आत्मध्यान-रूपी अग्नि से घातिया-कर्म-रूपी ईंधन को जला दिया और लोक-अलोक दोनों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त किया । तदनन्तर तीनों लोकों के ईश्वरपने को प्रगट करनेवाली पूजा प्राप्त की एवं फिर सुख का सागर तथा आत्मा के आठों गुणों से विराजमान निर्वाण को प्राप्त किया ॥४०॥ अथानन्तर-किसी एक समय त्रिपृष्ट ने अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज के लिए सुख देनेवाली ज्योतिप्रभा नाम की अपनी कन्या की प्रीतिपूर्वक स्वयम्बर विधि से दे दी थी तथा अर्ककीर्ति की पुत्री सुतारा स्वयम्वर की मनोहर विधि से बड़े प्रेम से त्रिपृष्ट के पुत्र श्रीविजय की अर्धांगिनी बन गई थी । इस प्रकार वंश-परम्परा से जिनका परस्पर सम्बन्ध चला आ रहा है, ऐसे वे सब भाई पुण्य-कर्म के उदय से प्राप्त हुई तथा वंश-परम्परा का कल्याण करनेवाली लक्ष्मी को प्राप्त हुए थे । जिस प्रकार पानी में लोहा सबसे नीचे जा कर बैठ जाता है, उसी प्रकार बहुत से आरम्भ-परिग्रह के भार से वह त्रिपृष्ट नारायण सातवें नरक-रूपी समुद्र में जा डूबा था । वहाँ पर उसने तैंतीस सागर तक, जिनको न कोई उपमा दी जा सकती है तथा न वाणी से ही कहे जा सकते हैं, ऐसे अत्यन्त घोर दुःख भोग किये थे । आचार्य कहते हैं ।, देखों जब ऐसे चक्रवर्ती को भी पापों से नरक में जाना पड़ा, तो फिर अशुभ-कर्मों से अन्य साधारण लोग नरक-रूपी खारे समुद्र में क्यों न डूबेंगे? देखो इन भोगों के कारण चक्रवर्ती की भी ऐसी अवस्था हुई; फिर भला सर्प के समान इन भोगों में ऐसा कौन-सा ज्ञानी है, जो तल्लीन हो जाए ? यदि राज्य से ऐसी अवस्था हुई तो फिर दुःख देनेवाले उस राज्य को धिक्कार हो, यदि राज्य-लक्ष्मी से ही नरक की प्राप्ति होती है, तो उस लक्ष्मी को दुष्टा स्त्री के समान बुद्धिमानों को छोड़ देना चाहिये । नारायण के वियोग से बलभद्र को भी बड़ा भारी शोक हुआ, सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में इष्टवियोग से क्या अनर्थ नहीं होता है ? तत्पश्चात उस बुद्धिमान ने कुटुम्ब तथा राज्य-सम्पदा को चपला के समान चन्चला समझा एवं धीरता के साथ अपने शोक को शान्त किया ॥१०॥ उन्होंने बुद्धिमानों द्वारा त्याग करने योग्य राज्यभार श्रीधिजय को दे दिया एवं युवराज पद विजयभद्र को दिया । 44 44 30
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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