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________________ श्री शां ति ना थ 9464 पु रा ण उसी प्रकार जब मृत्यु आ जाती है, तब यह जीव कुछ भी धर्म नहीं कर सकता।' इस प्रकार वह बुद्धिमान राजा संसार की विचित्रता का चिन्तवन कर कर्मरूप शत्रुओं के भी प्रबल शत्रु वैराग्य को प्राप्त हुआ । तदनन्तर वह राजा अपने पुण्य कर्म के उदय से नगण्य तिनके के समान कुटुम्ब एवं राजलक्ष्मी का त्याग कर पिहितास्रव मुनि के समीप पहुँचा । वे मुनिराज सब तरह के परिग्रहों से रहित थे; परन्तु गुण-रूपी सम्पदा से रहित नहीं थे । वे सब जीवों का हित करनेवाले थे एवं पूज्य थे। ऐसे मुनिराज को नमस्कार कर तथा मन-वचन-काय की शुद्धिपवूक सब तरह के परिग्रहों का त्याग कर महाराज प्रजापति ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए गुरु के वाक्यानुसार संयम धारण किया । तदनन्तर वे अपनी शक्ति को प्रगट कर कर्मों के सन्ताप को नाश करनेवाले बाह्य आभ्यन्तर के भेद से बारह प्रकार का घोर तपश्चरण करने लगे । उन्होंने बहुत दिनों तक अत्यन्त दुष्कर एवं भीषण कष्ट साध्य तपश्चरण किया एवं आयु के अन्त में अपना चित्त ध्यान में लगाया । उन मुनिराज ने सम्यक्त्व से मिथ्यात्व का, संयम से असंमय का एवं अप्रमत्त अवस्था से प्रमाद का नाश किया एवं क्षपकश्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। उन्होंने शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म का एवं फिर अनुक्रम से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय- बाकी के इन तीनों घातिया कर्मों का नाश किया एवं वे छद्मस्थ अवस्था को त्याग कर केवलज्ञान रूपी परम ज्योति को प्राप्त हुए ॥७०॥ इन्द्रादिक देवों ने आकर उनकी पूजा की एवं वे केवली भगवान अघातिया कर्मों का नाश कर सुख देनेवाले मोक्ष में जाकर विराजमान हुए । महाराज प्रजापति की यह कथा ज्वलनजटी ने भी सुनी तथा उनकी बड़ी स्तुति की । तदनन्तर वे विचार करने लगे कि महाराज प्रजापति धन्य हैं, जिन्होंने अपना उत्तम राजमहल भी त्याग दिया । मैं मूर्ख बालक के समान भोगों में लिप्त हुआ, अब तक निन्द्य पापों की खान तथा नरक देनेवाले गृहस्थाश्रम के मोह में पड़ा हुआ हूँ । इस प्रकार उन्होंने अपनी निन्दा की तथा भव्य प्राणियों के त्याग करने योग्य राज्य अर्ककीर्ति को दे दिया । तदनन्तर वे मुनिराज जगन्नन्दन के समीप पहुँचे । उन्होंने मोक्ष की इच्छा रखनेवाले धीर-वीर मुनिराज को नमस्कार किया तथा उन मुनिराज के वचनों के अनुसार देवों के द्वारा पूज्य श्री जिनेन्द्रदेव का नग्न-रूप शुद्ध परिणामों से धारण किया । वे मुनिराज कर्मों का नाश करने के लिए क्षमा, श्रेष्ठ मार्दव, उत्तम आर्जव, सत्य, शौच, उत्तम संयम, श्रेष्ठ तप, सुख की खान त्याग, आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य - ऐसे श्री शां ति ना थ पु रा ण २९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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