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________________ . FFFFF पक्षपाती ही हो; परन्तु मैं उसे देखने के लिए उस पर्वत पर नहीं जाऊँगा।' यह सुनकर वे दोनों विद्याधर कहने लगे-'उस चक्रवर्ती की अनुपस्थिति में ऐसे अभिमान के वचन नहीं कहना चाहिए; क्योंकि जब वह आकाश में खड़ा होगा, तब ऐसा कौन राजा है, जो उसके सामने खड़ा हो सके ?' यह सुनकर त्रिपष्ट कहने लगा कि क्या वह चक्र फिराने का काम किया करता है एवं घड़े आदि बर्तन बनाया करता है ? तब तो इच्छा शिल्पकार है, फिर भला उसे क्या देखना चाहिए ? त्रिपृष्ट की यह बात सुनकर उन दोनों दूतों ने कहा-'जो कन्यारत्न तो चक्रवर्ती के योग्य था, वह आज तेरे महल में पड़ा नष्ट हो रहा है' ॥२०॥ इस प्रकार कहकर वे दोनों ही दूत बड़ी शीघ्रता से राजमहल के निकल गए एवं शीघ्र ही अश्वग्रीव के पास जा पहुँचे । अश्वग्रीव को नमस्कार कर दोनों ने सब समाचार कह सुनाया । त्रिपृष्ट की उद्धतता सुनकर अश्वग्रीव क्रोधित हुआ एवं बड़े आडम्बर तथा बड़ी भारी सेना के साथ स्वयं रथावर्त पर्वत पर आ पहुँचा । नगर से निकलते समय उसके विनाश को सूचित करनेवाली पहिले के समान तीनों तरह के उपद्रव पुनः हुए । अश्वग्रीव का आना सुनकर बलभद्र एवं नारायण भी अपनी विभूति के साथ शीघ्र ही उसी पर्वत पर पहुँच गए । वहाँ पर दोनों सेनाओं में भारी युद्ध हुआ; दोनों की सेनाएँ समान संख्या में मारी गईं; इसलिए उसी समय से यमराज का 'समवर्ती' नाम पड़ गया था । बहुत देर तक तो युद्ध होता रहा, फिर 'व्यर्थ ही सेना का नाश करने से क्या लाभ है'-यह सोच कर त्रिपृष्ट स्वयं द्वन्द्व युद्ध करने के लिए शत्रु के सामने आया । अश्वग्रीव भी पहिले जन्म के बैर से शत्रु बना हुआ था; इसलिए क्रोधित होकर उसने बाणों की वर्षा कर त्रिपृष्ट को घेर लिया । उन दोनों का समान युद्ध होता रहा, दोनों में से कोई भी एक-दूसरे को न जीत सका; इसलिए उन दोनों ने अपनी-अपनी विद्या से माया-युद्ध करना प्रारम्भ किया । __ अश्वग्रीव पहिले तो बहुत देर तक युद्ध करता रहा, परन्तु जब उसने अपने शत्रु को सामान्य शस्त्रों से जीतना असम्भव समझा, तब उसने रथ में से ही शत्रु के ऊपर चक्र चलाया । परन्तु त्रिपृष्ट के पुण्योदय से वह चक्र त्रिपृष्ट की तीन प्रदक्षिणा देकर उसके दाहिने हाथ पर आकर ठहर गया । ठीक ही है, क्योंकि पुण्योदय से जीवों को क्या नहीं प्राप्त हो सकता है ? ॥३०॥ पहिले जन्म के बैर-भावों से क्रोधित होकर नरक में जानेवाले उस शत्र अश्वग्रीव को त्रिपृष्ट ने उसी चक्र से मार दिया । वह पापी अश्वग्रीव, धर्म *44444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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