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________________ ) त्रिपृष्ट को सिंहवाहिनी तथा गरुड़वाहिनी नामक दो विद्याएँ सिद्ध करने के लिए दी । इस प्रकार परमोत्सव मनानेवाले वे सब अपने-अपने पुण्य-कर्म के उदय से सुख-सागर में निमग्न हो गये । इधर अश्वग्रीव के नगर में उसके पाप-कर्म के उदय से उल्कापात हुआ, पृथ्वी दोलायमान हुई एवं दशों दिशाओं में आग लगने लगी । जिस प्रकार तीसरे काल के अन्त में भोगभूमि के आर्य सूर्य को देखकर चकित हुए थे, उसी प्रकार वहाँ की प्रजा उन तीनों तरह के अभूतपूर्व उपद्रवों को देखकर चकित एवं भयभीत हो गई । उन उपद्रवों को देखकर अश्वग्रीव भी चकित हो गया एवं कारण जानने के लिए मन्त्रियों के साथ बैठकर उसने शतबिन्दु नामक मतिज्ञानी से पूछा-'महाराज, यह सब उत्पात क्यों ? इनके शमन का उपाय क्या है ?' मतिज्ञानी शतबिन्दु कहने लगा-'अपने पराक्रम से जिसने सिन्धुदेश में सिंह को मारा है, आपके लिए भेजी हुई भेंट जिसने जबर्दस्ती छीन ली है एवं रथनुपूर के राजा ज्वलनजटी ने अपने पुण्य-कर्म के उदय से जिसे आपको देने योग्य स्त्रीरत्न समर्पण किया है, वही मनुष्य आप का अनिष्ट करेगा । उसके ये सब सूचक हैं, आप इन्हें दूर करने का उपाय कीजिये।' इस प्रकार उस निमित्तज्ञानी का कहा हुआ वचन उस अश्वग्रीव विद्याधर ने सुना । तदनन्तर उसने गुप्तचरों के द्वारा सिंह को मारना, आदि सब सुना एवं उस निमित्तज्ञानी की उक्ति को सत्य माना ॥१०॥ इसके पश्चात् इस कथन की परीक्षा करने के लिए उसने चिन्तागति एवं मनोगति नाम के दो विद्वान दूत त्रिपृष्ट के पास भेजे । वे दोनों दूत शीघ्र ही पोदनपुर पहुँचे । उन्होंने वहाँ के बलवान राजा को देखा एवं उसके आगे भेंट रखकर वे दोनों ही विनय के साथ कहने लगे-'हे राजन्! विद्याधरों के राजा अश्वग्रीव ने आपको आज्ञा प्रदान की है कि वे रथावर्त पर्वत पर जाएंगे, आप भी वहाँ आएँ । हम दोनों आप को लेने के लिए आये हैं । इसलिए उनकी आज्ञा शिरोधार्य मानकर शीघ्र चलिए।' इस प्रकार कहकर वे दोनों ही दूत चुप हो गये । उन दूतों की यह बात सुनकर त्रिपृष्ट क्रोधपूर्वक उन दोनों दूतों से कहने लगा-'अश्वग्रीव (घोड़े के-से मुखवाले) अथवा खरग्रीव (गधे के-से मुखवाले) मनुष्य मैंने आज तक नहीं देखे हैं, इसलिए मैं कौतूहल पूर्वक उनको यहाँ ही देखना चाहता हूँ।' त्रिपृष्ट की गर्वोक्ति सुनकर स्वामी के हित की इच्छा रखनेवाले वे दोनों ही दूत कहने लगे-'हे राजन् ! अनेक राजे जिसकी सेवा करते हैं, ऐसा वह विद्याधरों का राजा अश्वग्रीव तो आपही का पक्षपाती है। अतएव उसके लिए आप को ऐसे वचन नहीं कहना चाहिए।' यह सुनकर त्रिपृष्ट कहने लगा किखग (विद्याधर अथवा पक्षी) हमारा 44444. 844
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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