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वस्त्र आभूषण दिये।
तदनन्तर उन्होंने शुभ लग्न एवं शुभ मुहूर्त में बड़ी विभूति तथा भारी उत्सव के साथ त्रिपृष्ट को अपनी कन्यारत्न को समर्पित किया । सब राजे जिसकी सेवा करते हैं, ऐसा वह प्रथम नारायण त्रिपृष्ट, अपने पुण्यकर्म के उदय से, जिसे विद्याधर भी चाहते हैं तथा जो रूप-लावण्य से सुशोभित हैं, ऐसी उत्तम कन्या को पाकर अपने धर्म के फल से प्राप्त उत्तम भोगों का भोग करने लगा । कहाँ तो इस पृथ्वीतल पर विशाल पर्वत सदृश त्रिपृष्ट तथा कहाँ वह विद्याधरों के राजा की गुणवती पुत्री, तथापि आश्चर्य है कि पुण्य-कर्म के उदय से वह व्योमगोचरी कन्या रानी बनकर त्रिपृष्ट के घर आ गई । इसलिये बुद्धिमान लोगों को सदा धर्म सेवन करते रहना चाहिए । संसार में चाहे इष्ट पदार्थ कितनी ही दूर हो तथा चाहे तीनों लोकों में कष्ट-साध्य हो; तथापि धर्म के फल से प्राणियों को वह मिल ही जाता है । इसलिए श्री अरहन्तदेव का कहा हुआ धर्म सदा धारण करते रहना चाहिए । रत्नत्रय से उत्पन्न हुआ धर्म तीनों लोकों को ईश्वरपना तथा उत्तम सुख देनेवाला है, पापों का नाश करनेवाला है, तीर्थंकर की विभूति देनेवाला है, अत्यन्त निर्दोष है; स्वर्ग-मोक्ष को सर्वथा वश में करनेवाला है, गुणों का भंडार है, तीनों लोकों में पूज्य है तथा कल्याणों की परम्परा को समर्पण करनेवाला है । इसलिए बुद्धिमानों को सदा उसका सेवन करते रहना चाहिए। श्री शान्तिनाथ भगवान निर्मल गुणों के भंडार हैं, स्वर्ग-मोक्ष के अद्वितीय कारण हैं; तीनों लोकों के इन्द्र उनकी सेवा करते हैं, उत्तम मुनिराज उनकी स्तुति करते हैं, सब तरह के सुख देनेवाले हैं, तथा विद्वान लोग उनकी पूजा करते हैं। इसलिए उनके गुणों की प्राप्ति के लिए उनके समस्त गुण-समूहों का वर्णन कर मैं उनकी स्तुति करता हूँ ॥२४०॥ ..
इस प्रकार श्री शांतिनाथ पुराण में त्रिपृष्ठ एवं स्वयंप्रभा के विवाह का वर्णन करने वाला यह दूसरा अध्याय समाप्त हुआ
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॥२॥
तीसरा अधिकार . मैं अपने प्रारम्भ किये हुए कार्य की सिद्धि के लिए समस्त गुणों के सागर पाँचवें चक्रवर्ती तथा कामदेव सदृश सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ । तदनन्तर राजा ज्वलनजटी ने