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________________ 4444 का चक्रवर्ती था । उसके सुख देनेवाली अनन्तसेना नाम की रानी थी। उन दोनों के संयोग से उस भील का जीव स्वर्ग से च्युत हो कर मारीच नाम का पुत्र हुआ था । उस बुद्धिमान ने श्री ऋषभदेव के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। उस मारीच ने भूख-प्यास आदि से उत्पन्न हुए परीषहों के भय से संयम-रूपी माणिक्य को तो छोड़ दिया एवं उसके विपरीत कुलिंगियों का भेष धारण कर लिया था । श्री ऋषभदेव के मुख से उस मूर्ख को यह भी मालूम हो गया था कि उसे आगे चलकर मोक्ष प्राप्त करानेवाली श्री तीर्थंकर की विभूति प्राप्त होगी । तीव्र मिथ्यात्व के उदय से उसने श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ धर्म त्याग दिया था एवं नरक में पहुँचाने वाला निकृष्ट सांख्यमत स्वीकार कर लिया था। उसने अशुभ मार्ग का उपदेश दिया था, इसलिये उस पाप के फल से तीव्र कषाय-रूपी लहरों से भरे हुए संसार-सागर में वह बहुत दिन के लिए निमग्न हो गया था। आचार्य कहते हैं कि वह मारीच तपस्वी होकर भी खोटे मार्ग का उपदेश देने से महान दुःख को प्राप्त हुआ; फिर भला, जो खोटे मार्ग का आचरण करते हैं, वे क्यों न दुःखी होंगे? इसी भरतक्षेत्र के सुरम्य देश में पोदनपुर नाम का मनोहर एवं सुन्दर नगर है। वहाँ के राजा प्रजापति के मृगावती नाम की भार्या है । उस भील का जीव, संसार-रूपी वन में परिभ्रमण कर तथा काललब्धि पाकर तपश्चरण के द्वारा पुण्य उपार्जन कर उन दोनों के त्रिपृष्ट नाम का पुत्र हुआ है ॥२१०॥ उसी राजा के भद्रा नाम की रानी के गर्भ से विजय नाम का ज्येष्ठ पुत्र हुआ है । वे दोनों भाई बड़े ही सुलक्षण हैं एवं वे दोनों श्री श्रेयांसनाथ तीर्थंकर के समय में अपने पौरुष से प्रतिनारायण अश्वग्रीव (शत्रु) को मारकर तीन खण्ड लक्ष्मी के स्वामी इस युग के प्रथम नारायण एवं बलभद्र होंगे। इनमें से बलभद्र विजय श्रेयांसनाथ तीर्थंकर से दीक्षा ग्रहणकर घोर तपश्चरण कर तथा कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त करेगा । त्रिपृष्ट नारायण अशुभ योग के कारण संसार में बहुत परिभ्रमण करेगा एवं फिर काललब्धि पाकर अन्तिम तीर्थंकर होगा । आपका जन्म इसी विजयार्द्ध पर्वत पर धरणेन्द्र के सम्बन्ध से महाराज कच्छ के पुत्र नमि के वंश में हुआ है एवं महाराज प्रजापति का जन्म श्री ऋषभदेव तीर्थंकर के उपदेश के अनुसार इस संसार में प्रसिद्ध श्री बाहुबली के प्रसिद्ध वंश में हुआ है । इसलिये हे राजन् ! उनके साथ आप का सम्बन्ध पहिले से ही निश्चित है; फिर भी वह सम्बन्ध अब होना ही चाहिये । इसलिये धर्म एवं लक्ष्मी से सुशोभित आपको तीन खण्ड को. लक्ष्मी तथा सुख के स्वामी पुण्यवान त्रिपृष्ट को अपनी कन्या दे देनी चाहिये । त्रिपृष्ट को जामाता 44444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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