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था, वहाँ पर मैंने यह पुण्य का कारण वृतान्त सुना था । वह विद्युत्प्रभ, वर के सब गुणों से पूर्ण है एवं सुखी है, इसलिए गुणों से सुशोभित तथा धर्म में तत्पर ऐसी यह कन्या उसी को देनी चाहिये । हे सजन्! अपना राजकुमार अर्ककीर्ति पुण्य-मूर्ति है, उसके लिए पुण्यवती ज्योर्तिमाला को बड़ी विभूति के साथ ले लेना चाहिये'॥१९०॥ श्रुतसागर की यह उक्ति सुनकर उत्तम बुद्धिवाला सुमति नाम का मन्त्री सब संकल्प-विकल्पों पर उत्तर देने लगा । वह कहने लगा कि पुण्य-कर्म के प्रभाव से यह कन्या पुण्य-रूप आदि सब गुणों से विभूषित है, इसलिये इसके लिए अलग-अलग कितने ही विद्याधर राजा प्रार्थना करते हैं । इसलिये यह कन्या विद्युत्प्रभ को नहीं देनी चाहिये, क्योंकि उसे बहुतों के साथ बैर करना पड़ेगा; किन्तु इसके लिए स्वयम्वर की रचना करनी चाहिये, यह कह कर वह चुप हो गया । अन्य सब मन्त्रियों ने कार्य को सिद्ध करनेवाली उसकी यह बात मान ली; इसीलिए राजा ने मन्त्रियों को आदर-सत्कार कर
उन्हें विदा किया । तदनन्तर राजा ज्वलनजटी ने पुराणों के अर्थ को जाननेवाले तथा ज्ञानी संभिन्निश्रोत नाम || के नैमित्तिक से पूछा-'हे ज्ञानी ! बताओ स्वयंप्रभा का पति कौन होगा?' यह कहकर राजा मौन हो गया
एवं वह नैमित्तिक नीचे लिखे अनुसार वचन कहने लगा-पूर्व में पुराणों का निरूपण करते समय श्री ऋषभदेव ने भरत चक्रवर्ती को प्रथम नारायण की कथा इस प्रकार कही थी । इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावली देश में पुण्डरीकिणी नगरी है । उसी नगरी के समीप मधुक नाम के वन में वन का स्वामी पुरूरवा नाम का भद्र भीलों का राजा रहता था । एक दिन उस वन में सागरसेन नाम के मुनिराज मार्ग भूल कर विहार करते हुए कहीं जा रहे थे । पुण्य-कर्म के उदय से उस भील ने बड़े विनय-भाव से मुनिराज को परलोक में सुख देनेवाला नमस्कार किया । उन मुनिराज ने कृपापूर्वक उस भव्य के लिए इस लोक तथा परलोक-दोनों लोकों में सुख देनेवाले मद्य-मांस आदि के त्याग-रूप धर्म का उपदेश दिया । उस धर्मात्मा भील ने मुनिराज के चरणकमलों को नमस्कार किया तथा काललब्धि प्राप्त हो जाने के कारण मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक मद्य-मांस आदि का त्याग किया तथा जैन-धर्म को स्वीकार किया ॥२०॥ श्रेष्ठ धर्म के फल से वह सौधर्म स्वर्ग में बड़ी ऋद्धियोंवाला तथा दिव्य लक्ष्मी का स्वामी देव हुआ । आचार्य कहते हैं कि देखो, थोड़े ही पुण्य के फल से वह भील ऐसा हुआ; फिर भला, उत्तम कुल में उत्पन्न हुए जो लोग धर्म-सेवन करते हैं, वे क्यों न सुखी होंगे? इसी भरतक्षेत्र को अयोध्या नगरी में भरत नाम
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