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________________ राजा मेघवाहन पुण्यवान पुत्र एवं लक्ष्मी के समान पुत्री को पाकर बहुत आनन्दित रहता है । एक दिन राजा मेघवाहन श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करने के लिए बड़ी भारी विभूति से सुशोभित थी सिद्धकूट चैत्यालय श्री गया था । वहाँ पर राजा को अपने पुण्य कर्म के उदय से अनेक गुणों से विभूषित वरधर्म नाम के अवधि ज्ञानी चारण मुनिराज के दर्शन स्वतः हो गये थे । राजा ने बड़े आनन्द के उन उत्तम मुनि की वन्दना की एवं मुनिराज ने उस राजा के सामने स्वर्ग- मोक्ष प्रदायक धर्म का स्वरूप कहा । तदनन्तर राजा ने उन मुनिराज से अपने पुत्र के पूर्व-भव पूछे थे । राजन् ! उन्हें मैं कहता हूँ, आप अपना चित्त सावधान कर शां सुनिये। इसी प्रसिद्ध जम्बूद्वीप में वत्सकावती देश है एवं उसमें श्रेष्ठ धर्म से सुशोभित प्रभाकारी नाम की नगरी है। पुण्य कर्म के उदय उस नगरी का राजा नन्दन था, जो कि स्वयं बहुत ही सुन्दर था एवं उसके शुभकर्म के उदय से जयसेना नाम की रानी उसे प्राप्त हुई थी। उन दोनों के विजयसेन नाम का पुत्र था, जो कि पुण्य एवं गुणों का संगम था, विवेकी था एवं ज्ञानी था । वह एक दिन अपनी इच्छानुसार मनोहर नाम के वन में गया एवं वहाँ पर आम के पेड़ को फल रहित देखकर सब भोगों से विरक्त हुआ । सो ठीक ही है, क्योंकि वैराग्य ही मोक्ष का कारण है ॥८०॥ यह संसार असार है एवं जिस प्रकार बादल से प्रकट हुई बिजली क्षणमात्र में नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार भोग, राज्य, शरीर एवं धन सब क्षणमात्र नष्ट हो जाते I जिसकी बुद्धि शान्त हो गई है, ऐसा वह विजयसेन ऊपर लिखे अनुसार चिन्तवन कर सब तरह के परिग्रहों से रहित पिहितास्रव नाम के मुनि के समीप गया एवं उनको जाकर नमस्कार किया । उसने गुरु की आज्ञानुसार 'वैराग्य धारण करने में तत्पर ऐसे चौदह हजार राजाओं को भी दुर्लभ ऐसा संयम धारण किया । उसने कर्मों का नाश करनेवाला कठिन बारह प्रकार का तपश्चरण किया तथा अन्त में समाधिमरण धारण कर चारों आराधनाओं का स्वयं चिन्तवन किया । शरीर को त्याग कर पुण्य-कर्म के उदय से वह माहेन्द्र स्वर्ग के चक्रक नाम के विमान में दिव्य आभरणों से सुशोभित देव उत्पन्न हुआ । अपने किये हुए तपश्चरण से प्राप्त हुए पुण्य कर्म से उसने सात सागर तक समस्त इन्द्रियों को सुख देनेवाले दिव्य भोग भोगे । वहाँ से चय कर वह तेरे विद्युत्प्रभ नाम का पुत्र हुआ, अब आगे अत्यन्त घोर तपश्चरण कर मोक्ष जाएगा । मैं एक दिन पुण्य सम्पादन करने के लिए श्री सिद्धकूट चैत्यालय में स्तुति करने के लिए गया ति ना थ पु रा ण में श्री शां 4 5 5 5 5 ति ना थ पु रा ण २०
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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