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श्री
-एक
लोगों के लिए लक्ष्मी सदा दासी के समान स्थिर बनी रहती है तथा संसार में जो-जो दुर्लभ वस्तुएँ हैं, वे सब धर्म के प्रभाव से अपने-आप घर में आ जाती हैं, ॥१४०॥ जिस प्रकार स्वयम्वर की रचना करानेवाली कन्या विवाह के लिए अपने-आप आ जाती है, उसी प्रकार धर्म के प्रभाव से मुक्ति रूपी कन्या भी धर्मात्मा जीव की मुक्ति के लिए स्वयं आ जाती है । बहुत कहने से क्या लाभ ? संसार में जो कुछ भी दुर्लभ है, चाहे तीनों लोकों में कहीं भी हो, वह सब धर्म के प्रभाव से पुरुषों को अपने-आप प्राप्त हो जाता है । मनुष्यों के लिए ये सब बिना धर्म के कभी सम्भव नहीं हो सकता । ये ही बातें पाप कर्म के उदय से दुःख देनेवाली अर्थात् विपरीत हो जाती हैं । श्री जिनेन्द्रदेव ने धर्म दो प्रकार का श्रावका का दूसरा मुनियों का । श्रावकों का धर्म सहज साध्य है एवं मुनियों का कठिन साध्य है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत- ये कुल बारह व्रत श्रावकों के धर्म हैं । सम्यग्दर्शन के साथ होने से यही धर्म 'शुद्ध' कहलाता है । यही स्वर्गों का सुख देनेवाला है, अनुक्रम से मोक्ष देनेवाला है एवं यही धर्म श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में बँटा हुआ है । पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्ति - यह तेरह प्रकार का चारित्र मुनियों का कहलाता है, यही धर्म सर्वथा पाप-रहित है एवं मोक्ष प्राप्त कराने में एक अद्वितीय मार्गदर्शक है । हे राजन् ! इन दोनों धर्मों में से जो तुम्हें अच्छा लगता हो एवं जिसे तुम धारण कर सकते हो, उसे स्वीकार करो; क्योंकि परलोक में स्वर्ग-मोक्ष के सुखों का सागर एक धर्म ही है ।' मुनि का यह उपदेश सुनकर राजा ने बड़े आनन्द से सम्यग्दर्शन के साथ-साथ गृहस्थों के व्रत स्वीकार किये । तदनन्तर वह राजा सम्यग्दर्शन तथा दानपूर्वक व्रतों को पालन करने की प्रतिज्ञा धारण कर तथा दोनों मुनियों के चरणकमलों को नमस्कार कर अपने राजभवन में लौट आया । स्त्री-पुरुष सहित अन्य सब भव्यों ने भी अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार मुनि के समीप व्रत ग्रहण किये ॥ १५०॥ स्वयंप्रभा भी उन मुनियों के समीप दान, पूजा, उपवास आदि सहित कितने ही व्रतों को धारण कर अपने घर आई । एक दिन स्वयंप्रभा ने अपने नियत पर्व के दिन उपवास किया। दूसरे दिन भक्तिपूर्वक श्री अरहन्तदेव की पूजा की । उपवास के कारण जिसका मुख कुछ मलिन हो रहा है, ऐसी वह स्वयंप्रभा, विनय से नम्र होकर अपने दोनों हाथों से भगवान श्री अरहन्तदेव के चरणकमलों के स्पर्श से पवित्र हुई एवं उसने पापों को दूर करनेवाली एक विचित्र माला लाकर ज्वलनजटी को समर्पित की। राजा ज्वलनजटी ने भक्तिपूर्वक वह
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