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________________ हा 54 Fb FRE ओर अपने शरीर के उत्तम भाग से अर्थात मस्तक झुका कर नमस्कार किया । तदनन्तर धर्म में रुचि रखनेवाले उस राजा ने आनन्द भेरी बजवाई। अनेक भव्य-जीवों को तथा अन्तःपुर (रनिवास) की रानियों को तथा पुत्रों को साथ लेकर वह मुनियों के दर्शन करने के लिए चला । उसके साथ में चतुरंगिण सेना . भी थी, पूजा की सामग्री थी तथा सब तरह की विभूति थी । वह केवल धर्म-श्रवण करने के लिए उन दोनों मुनिराजों के समीप बड़ी शीघ्रता के साथ पहुंचा । राजा ने अपने दोनों हाथ मस्तक पर रखकर दोनों मुनियों के चरणकमलों में नमस्कार किया तथा भक्तिपूर्वक पूजा की सामग्री द्वारा अनेक प्रकार से उनकी पूजा की । फिर बड़े आनन्द के साथ उनके गुणों को प्रगट करनेवाली स्तुति प्रारम्भ की-'हे देव ! आप दोनों ही ज्ञान-नेत्र हैं और आप दोनों तपश्चरण-रूपी लक्ष्मी से अत्यन्त सुशोभित हैं । आप आज मुझे इस संसार सागर से पार कराने में समर्थ हैं; संसार-सागर से पार होने में आप के दोनों चरणकमल ही मुझे हस्तावलम्बन (सहारे) का काम देंगे ॥१३०॥ हे नाथ ! मुक्ति-रूपी लक्ष्मी आपको बड़ी उत्कंठा के साथ देख रही है, आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैली हुई शोभा दे रही है । इस प्रकार स्तुति कर वह पुण्यवान राजा उन दोनों के सामने बैठ गया एवं अपने परिवार के साथ धर्म-श्रवण करने में तल्लीन हो गया । उन दोनों मुनियों ने पहिले तो 'धर्म-वृद्धि हो'-ऐसा आशीर्वाद दिया एवं फिर जिनकी बुद्धि दया से आर्द्र हो रही है, ऐसे ज्येष्ठ (बड़े) मुनिराज उसे सुख-समुद्र-रूपी धर्म का उपदेश करने लगे । वे कहने लगे-"हे राजन् ! जो जीवों को संसार-रूपी महासागर से उठा कर अनन्त सुख से भरे हुए मोक्ष में स्वयं स्थापित कर दे, उसे वास्तविक सद्धर्म कहते हैं । इस संसार में मनुष्य को राज्य भी धर्म से मिलता है, इन्द्र का पद भी धर्म से मिलता है एवं चक्रवर्ती का पद भी धर्म से मिलता है । धर्म से ही तीनों लोकों में फैलनेवाली निर्मल कीर्ति प्राप्त होती है एवं धर्म से ही, तीनों लोक जिसको नमस्कार करते हैं, ऐसा तीर्थंकर पद प्राप्त होता है । धर्म से ही स्त्री पुत्रवती होती है, धर्म से ही पुत्र सुलक्षण होते हैं, धर्म से ही माता शीलवती होती है एवं धर्म से ही मनुष्यों को अच्छे भाईबन्धु मिलते हैं । सब इन्द्रियों को सुख देनेवाले सारे भोग धर्म से ही मिलते हैं एवं घर, सवारी, पदार्थ, राज्य, आभूषण आदि सब धर्म से ही प्राप्त होते हैं । जो शरीर तपश्चरण करने में समर्थ होता है, सब दोषों से रहित होता है, जिसका उत्तम संहनन होता है एवं रूप-लावण्य, सौभाग्य आदि से सुशोभित होता है, वह सब धर्म से ही प्राप्त होता है । धर्म से ही धर्मात्मा 944
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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