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________________ . FFFF पुण्य-कर्म के उदय से सिद्ध अपनी वेग-विद्या से बहुत से विद्याधर राजाओं को बड़ी शीघ्रता के साथ जीत लिया था । परन्तु विद्याधर राजा ज्वलजटी ने अपने विद्याबल से वायुवेगा पर विजय प्राप्त कर ली तथा उसके साथ उत्सवपूर्वक विवाह भी कर लिया था । धर्म-कार्यों में आसक्त वह राजा केवल सन्तान प्राप्ति की इच्छा से ही यथा समय उसके साथ काम-सेवन करता रहता था । वायुवेगा रानी सती, रूपवती तथा लावण्यमयी थी । वह आभूषणों से सुशोभित रहती एवं पूजा, दान, व्रत आदि धर्म-कार्य अपने पति के समान ही करती थी। जब उसका पति भगवान की पूजा करता, तब वह भी पूजा करती; जब वह दान देता, तब वह भी दान करती; जब वह प्रोषध एवं शील व्रतों का पालन करता, तब वह भी उन्हें पालन करती थी । इस प्रकार वह सब प्रकार के धर्म-कार्य पति के साथ ही करती थी । वायुवेगा भोजन, शयन एवं भोग आदि समस्त कार्य पति के साथ ही करती थी; इसलिए लोग उसे 'पतिव्रता' एवं 'सती' कहते थे । राजा ज्वलनजटी भी भोगोपभोग आदि सब कार्य वायुवेगा के साथ करता था । वह स्वप्न में भी कभी अन्य स्त्री की इच्छा नहीं करता था। जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से धर्म की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार उन दोनों के धर्म-सेवन के प्रभाव से अर्ककीर्ति नाम का पुत्र हुआ, जो कि अपनी कीर्ति एवं प्रभाव से सब दिशाओं को प्रकाशित करता था । जिस प्रकार चन्द्रमा के साथ कान्ति अथवा किरणावली होती है तथा पुण्य व पराक्रम से लक्ष्मी उत्पन्न होती हैं; उसी प्रकार उन दोनों के अर्ककीर्ति के साथ ही नेत्रों को सुख प्रदायक स्वयंप्रभा नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । जिस प्रकार चन्द्रकला अनुक्रम से बढ़ती है, उसी प्रकार वह भी अनुक्रम से श्रेष्ठ यौवन अवस्था को प्राप्त हुई थी; रूप, लावण्य एवं आभूषण आदि से वह सुशोभित थी । उसकी सुन्दरता को देखकर रानियों को क्षोभ उत्पन्न होता था ॥१२०॥ अथानन्तर किसी एक दिन वह राजा ज्वलनजटी अनेक विद्याधरों के मध्य सभा में विराजमान था । उसी क्षण वन के माली ने आकर राजा को नमस्कार किया तथा निवेदन किया-'हे देव ! आप के पुण्योदय से मनोहर नाम के वन में जगन्नन्दन एवं अभिनन्दन नाम के दो चारण मुनि पधारे हैं।' वह राजा उस वनमाली के वचन सुनकर आनन्द-सागर में डूब गया तथा सिंहासन के उतर कर सात पैंड़ सामने चलकर, देवों के द्वारा भी नमस्कार योग्य उन दोनों चारण मुनियों के चरणकमलों को परोक्ष में हृदय में धारण कर केवल पुण्य-सम्पादन के लिए उसने वन की दिशा की 44
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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