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________________ EFFFF नमस्कार करते थे, अनेक नारियों का समूह उसकी सेवा करता था तथा वह बड़ी भारी सेना का अधिपति था । भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की महापूजा तथा महाभिषेक करने में वह सदा तत्पर रहता था । वह बहुत ही धीर-वीर, उदार तथा सुन्दर था । वह सम्यग्दर्शन से सुशोभित था, सदा पुण्य कार्यों में तत्पर रहता था,, जिन-धर्म में लीन था, दानी था तथा जिन-धर्म से अत्यधिक प्रेम रखता था । उसका मस्तक बहुत बड़े मुकुट से शोभायमान था, उसके गले में सुन्दर हार था, वह दिव्य वस्त्र पहिने था, उसके दोनों हाथ कंकणों से शोभायमान थे । वह अत्यन्त पुण्यवान तथा बहुत ही सुन्दर था ॥१००॥ उसका कंठ दिव्य वाणी से शोभायमान था एवं शरीर अनुपम शोभा से अलंकृत- था, अपने शरीर को कान्ति से वह कामदेव को भी जीतता था तथा दूसरों के नेत्रों को वह बहुत ही आनन्द प्रदान करनेवाला था । वह विद्याधर राजा पूर्व-भव में उपार्जन किए हुए पुण्य-कर्म के उदय से विद्याधर आदि विभूतियों के द्वारा चक्रवर्ती के समान शोभायमान था । धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है तथा अर्थ से राज्य-सुखजनित काम की प्राप्ति होती है। यही समझकर वह राजा निरन्तर एकमात्र धर्म का ही सेवन करता था । वह राजा इस लोक तथा परलोक का कल्याण करने के लिए अपना चित्त धर्म में लगाता था । अपने वचन का उपभोग धर्म के गुण वर्णन करने में करता था एवं अपना शरीर सदा धर्म की सेवा में लगाता था । वह राजा सब गुणों की खान मुनियों को दान देता था अन्य सब तरह के कल्याण करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करता था । धर्म के प्रभाव से उसके घर में राज्य के सब अंगों को विकसित करनेवाली तथा सब तरह के मनोवांछित सुख देनेवाली लक्ष्मी सदा दासी के समान निवास करती थी। संसार में जो कुछ भी सारभूत धर्म था, वह सब उस यण राजा के यहाँ उसके पण्य-कर्म के उदय से स्वयं उपलब्ध था । समस्त भोगोपभोगों को देनेवाली एवं राज्य को प्रचालित करनेवाली बहुत-सी विद्याएँ उसके शुभ योगों से अपने-आप उसे सिद्ध हो जाती थीं। इस प्रकार समस्त शत्रुओं को जीतनेवाला वह राजा सद्धर्म में लीन होकर तथा सब तरह के बैर-भाव त्याग कर शभ कर्मों के उदय से न्याय-मार्ग से राज्य करता था । अथानन्तर दिव्य-तिलक नामक नगर में चन्द्राभ नाम का एक राजा राज्य करता था, अनेक लक्षणों से सुशोभित सुभद्रा नाम की उसकी रानी थी ॥११०॥ उन दोनों के वायुवेगा नाम की एक कन्या थी, जो अनेक लक्षणों से सुशोभित रूप-लावण्य-आभूषण आदि से कामियों के चित्त को क्षोभित करनेवाली थी । वायवेगा ने अपने 4444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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