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श्री शान्तिनाथ के केवलज्ञान का समय (सशरीर केवलज्ञान) षोडश कम पच्चीस सहन वर्ष समझना चाहिये । तदनन्तर जब उनकी आयु अत्यन्त स्वल्प शेष रह गई, तब मोक्ष प्राप्त करने के अभिप्राय से विहार एवं धर्मोपदेश त्याग कर भगवान श्री शान्तिनाथ वहीं पर मौन धारण कर तथा निश्चल होकर विराजमान हो गये । तत्पश्चात् उन्होंने सर्वप्रथम ७२ प्रकृनियों को नष्ट कर दिया एवं तत्पश्चात् द्वितीय चरण में शेष कर्मों का नाश करने हेतु उद्यम किया एवं आदेय, मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, यश:कीर्ति, पर्याप्ति, त्रस, बादर, सुभग, मनुष्यायु, उच्च गोत्र, सातावेदनीय तथा तीर्थकर नामकर्म ये त्रयोदश प्रकृतियाँ उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में नष्ट की । इस प्रकार ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिवस भरणी नक्षत्र में रात्रिकाल के प्रथम चरण में कृतकृत्य भगवान श्री शान्तिनाथ 'अ इ उ ऋ लु'-इन पंच लघु अक्षरों के उच्चारण काल तक अयोगी रह कर तथा समस्त कर्मों को एवं तीनों कायों (शरीरों) को नष्ट कर लोक के शिखर पर जा विराजमान हुए । भगवान श्री शान्तिनाथ समस्त बन्धनों से रहित होकर ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने के कारण ऊर्ध्वगामी एरण्ड बीज के समान एक ही समय में लोक शिखर पर जाकर विराजमान हुए । जिनको समस्त संसार नमस्कार करता है तथा जो समस्त पदार्थों को एक संग हस्तकमलावत देखनेवाले तथा जाननेवाले हैं, ऐसे वे भगवान श्री शान्तिनाथ वहाँ पर दिव्य गुणों को प्राप्त कर उपमा रहित, चिरस्थायी, अनन्त विषयों से रहित, नित्य, केवल आत्मा से प्रगट होनेवाला, जन्म-मरण-जरा तथा हानि-वृद्धि, आदि से रहित अबाधित सुख का अनुभव करने लगे । देव-मनुष्यों को तीनों कालों में एवं तीनों लोकों में जो पूर्ण सुख प्राप्त हैं, उससे अनन्तगुणा सुख का भगवान श्री शान्तिनाथ एक ही समय में अनुभव करते थे । उसी समय | उनकी अन्तिम पूजा करने की अभिलाषा से समस्त इन्द्रादिक देव आये तथा उन्होंने बड़ी भक्ति से भगवान श्री
शान्तिनाथ की मोक्ष को सिद्ध करनेवाली परम पवित्र काया की पूजा की । तत्पश्चात् उस काया को बहुमूल्य पालकी में विराजमान कर चन्दन, अगुरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों के संग अत्यन्त आदर से ले गये तथा अग्निकुमार देवों के संग इन्द्र के मुकुट से प्रगट हुई अग्नि से उस काया को शीघ्र ही पर्यायान्तर को समर्पित कर दिया अर्थात् भस्म कर दिया । उस समय उस काया की सुगन्धि से समग्र दिशायें सुगन्धित हो गई थीं । तत्पश्चात् प्रसन्न होकर समस्त देव अपने-अपने स्थान को प्रत्यावर्तन कर गये । मोक्ष अवस्था में जिनका आकार अन्तिम काया से कुछ न्यून है, जो मुक्ति रूपी रमणी के संग परम.सुख का अनुभव करते हैं एवं जो समस्त संसार द्वारा वन्द्य हैं, ऐसे जिनराज श्री शान्तिनाथ भगवान की मैं उनके गुणों की प्राप्ति के अभिप्राय से अत्यन्त निर्मल भक्तिभाव से
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