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________________ 4 . 444 से, फलों से नम्रीभूत वक्षों से, चावल आदि समस्त धान्यों से अत्यन्त सुशोभित परिलक्षित हो रही थी । भगवान के समवशरण में शरद् ऋतु में सरोवर की छटा के समतुल्य आकाश निर्मल दृष्टिगोचर हो रहा था । देवगण भक्तिपूर्वक दर्पण आदि मनोहर अष्टमंगल द्रव्य भगवान के सम्मुख लिये खड़े थे । घातिया कर्मों को नष्ट करनेवाले भगवान शान्तिनाथ देवों द्वारा प्रकट किये हुए एवं महाऋद्धि को धारण करनेवाले समग्र चतुर्दश अतिशयों से अलंकृत थे । अष्ट प्रातिहार्यों से सुशोभित भगवान जब गगन में विहार करते थे, तब उनके चतुर्दिक कोटि-कोटि ध्वजाएँ फहराती थीं । उस समय अनेकों नगाड़ों को बजाया जा रहा था, जिनसे समस्त दिशाएँ गुन्जित हो रही थीं । यह गुरु गम्भीर प्रचण्ड निनाद अत्यन्त आह्लादकारी था एवं ऐसा प्रतीत होता था मानो कर्मरूप शत्रुओं को ही ललकार रहा हो । गगन रूपी रंगभूमि में अप्सरायें नृत्य कर रही थीं, गायक देव एवं विद्याधर वीणावादन की लय पर | मधुर गीत गा रहे थे । देवगण परम उत्साह से 'भगवान की जय हो, भगवान की जय हो' आदि तुमुल नाद कर रहे थे एवं इन्द्रादिक भी अपने-अपने कण्ठ से 'जय-जय' शब्दोच्चारण कर रहे थे । इस प्रकार जगत्पति भगवान श्री शान्तिनाथ समस्त संसार को आनन्दित करते हुए एवं अपने वचन रूपी अमृत से समग्र श्रोताओं को तृप्त करते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी पर विहार करने लगे । दिव्य मूर्ति को धारण करनेवाले भगवान श्री शान्तिनाथ ने सूर्य रूपी मुख से निर्गत अपनी वचन रूपी किरणों से मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह को नष्ट कर दिया एवं समस्त संसार को निर्मल ज्ञान से आलोकित (उद्भासित) कर दिया। तीर्थंकर भगवान के द्वादश सभाओं के संग सन्मार्ग (मोक्ष मार्ग) का उपदेश देने के अभिप्राय से अवन्ती, कुरु, काशी, कोशल, अंग, बग, कलिंग, मगध, सा, पुंड्र विदर्भ, मद्र मालव एवं पान्चाल आदि अनेक देशों में विहार किया । समस्त अंगों के ज्ञाता एवं अनेक प्रकार की ऋद्धियों को धारण करनेवाले चक्रायुध समेत छत्तीस गणधर तीर्थंकर के चरण कमलों में नमस्कार करते थे । ज्ञान रूपी नेत्रों को धारण करनेवाले एवं समस्त प्राणियों का हित करने में तत्पर एकादश अंग चतुर्दश पूर्व रूपी महासागर के पारंगत अर्थात् एकादश अंग चतुर्दश पर्व के पाठी ८०० श्रुतकेवली थे । इसी प्रकार ध्यान एवं अध्ययन में प्रवृत्त शिक्षकों की संख्या इकतालीस सहस्र आठ शतक थी। पदार्थों को प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों रीतियों से जाननेवाले तीन सहस्र अवधिज्ञानी मुनि भक्तिपूर्वक भगवान के चरण कमलों को नमस्कार करते थे । इस प्रकार द्वादश सभाओं के संग सद्धर्म का उपदेश देते तथा विहार करते हुए जब भगवान की आयु मात्र एक मास शेष रह गई, तब वे श्री सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए । भगवान 44
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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