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सौधर्म इन्द्र ने उनकी स्तुति की। उनसे विहार करने के लिए भक्तिपूर्वक भूमिका बनायी, उनके गुणों की प्रशंसा की, उन्हें नमस्कार किया, जगत् में आनन्द उत्पन्न किया एवं इस प्रकार वह इन्द्र अपने को धन्य-धन्य मानने लगा। तदनन्तर तीनों लोकों के नाथ भगवान श्री शान्तिनाथ समस्त संघ के संग धर्मचक्र को सम्मुख (आगे रख) कर धर्मविजय (विहार करने) का उद्योग करने लगे। भगवान श्री शान्तिनाथ के विहार करते समय कोटि-कोटि देवगण उनके संग गमन कर रहे थे एवं 'जय-जय' निनाद (घोषणा) कर रहे थे, जिसके तुमुल कोलाहल से समस्त वायुमंडल प्रचण्ड गुंजित हो रहा था । ____ इस प्रकार भगवान श्री शान्तिनाथ सूर्य के समतुल्य कामना रहित वृत्ति को धारण करते हुए समग्र देवों के संग विहार करने लगे। भगवान श्री शान्तिनाथ जिस प्रदेश में भी विहार करते थे, वहाँ शत-शत योजन तक सुभिक्ष रहता था एवं ईति-भीति समग्र नष्ट हो जाती थी । समस्त जीवों को धर्मोपदेश देने के लिए भगवान श्री शान्तिनाथ व्योम पथ से ही विहार करते थे एवं धर्म रूपी अमृत की महावृष्टि कर भव्य रूपी धान्यों का सिंचन करते थे। भगवान श्री शान्तिनाथ की शान्त अवस्था के प्रभाव से हिरण, व्याघ्र, सर्प, नकल आदि जाति विरोधी जीव भी एक संग रहते थे एवं कोई किसी का वध नहीं कर सकता था। भगवान श्री शान्तिनाथ का मोहनीय कर्म नष्ट हो गया था, इसलिये उनके कवलाहार नहीं था । वे नोकर्म वर्गणाओं से ही तृप्त थे एवं शुद्ध आत्मा से उत्पन्न हुए अनन्त सुख से सुखी थे । भगवान के वेदनीय आदि कर्म भी विदग्ध (जली) हुई रज्जू (रस्सी) के सदृश निरुपयोगी थे, इसलिये भगवान को तिर्यन्च या देवों द्वारा कृत किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता था । देव, मनुष्य पशु, आदि समग्र प्राणी जगतगुरु भगवान को सर्व दिशाओं में अपनी ओर ही मख किये हए देखते थे अर्थात तीर्थंकर भगवान चतुर्मुख विराजमान थे, इसलिये उनके दर्शन चारों दिशाओं में होते थे। भगवान के समीप हिरण, व्याघ्र, गज, सिंह आदि जाति विरोधी जीवों में भी परस्पर मैत्री भाव था । भगवान की पीठिका के समीप की भूमि पर देवों के लगाये हुए मनोहर वृक्ष के जो कि समग्र ऋतुओं के फल-पुष्प आदि के भार से नम्र (झुके हुए थे)। उस समवशरण की भूमि दर्पण के समकक्ष निर्मल थी, अत्यन्त मनोहर थी, सारभूत दर्शनीय थी एवं समस्त प्रकार के उपद्रवों से रहित थी। संसार को धर्मोपदेश देने हेतु भगवान शान्तिनाथ को विहार करते हुए देखकर सुखद, शीतल एवं सुगन्धित वायु मन्द-मन्द प्रवाहित हो रही थी। भगवान का चरण जहाँ-जहाँ पर पड़ता था, वहीं पर देवगण उत्तम केशर से सुशोभित दो सौ पच्चीस कमलों की रचना कर देते थे। तीर्थकर भगवान के समीपस्थ समग्र भूमि देवों के अतिशय
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