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________________ 4 Fb " लोकाकाश तथा अलोकाकाश का निरूपण किया एवं ऊर्ध्व-मध्य-अधोलोक के भेद से लोक के भेद वर्णित किए। तदनन्तर हानि-लाभ को सूचित करनेवाले अवसर्पिणी काल के द्वादश भेद का वर्णन किया तथा सुख-दुःख प्रदायक भोगभूमि एवं कर्मभूमि का स्वरूप निरूपित किया । तीर्थंकर, बलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनाराययण एवं कामदेव आदि के चारित्र (पुराण) का वर्णन किया एवं चरम शरीरियों के चरित्र निरूपण किए। भगवान ने इस काल के चौबीस तीर्थंकर आदि के कल्याणक भी विस्तार से वर्णित किए, उनके कारण एवं उनसे होनेवाले सुख भी निरूपित किए तथा उन समग्र की आयु-काया-नाम आदि का विशेष उल्लेख किया । उस समय कितने ही निकट भव्य जीवों ने दिव्य ध्वनि के द्वारा धर्म का स्वरूप ज्ञात कर वैराग्य धारणपूर्वक दीक्षा धारण कर ली थी। तदनन्तर अनेक ऋद्धियों तथा चारों ज्ञानों को धारण करनेवाले प्रकाण्ड विद्वान एवं प्रमुख गणधर चक्रायुध ने समस्त संसार का उपकार करने के अभिप्राय से उसी समय भगवान श्री जिनेन्द्रदेव से अर्थ ज्ञात कर पद्म रूप में विसतारपूर्वक द्वादश अंगों की विवेचना रचित की । जब भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की दिव्य ध्वनि शान्त (मौन) हो गयी तब समस्त शान्त हो गये, वायु रहित समुद्र के समतुल्य समस्त निश्चल हो गये । सूक्ष्म बुद्धि को धारण करनेवाला सौधर्म इन्द्र उठा, तीर्थंकर भगवान के सम्मुख करबद्ध खड़े होकर समस्त जीवों का उपकार करने के अभिप्राय से भगवान से विहार करने की प्रार्थना करने लगा। भव्य जीवों को सम्बोधन आदि से उत्पन्न हुए अनेक गुणों को प्राप्त कर अत्यन्त सावधानी पूर्वक वह सौधर्म इन्द्र श्री जिनेन्द्रदेव की स्तुति करने लगा-हे स्वामिन् ! आप तीनों लोकों के भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने में समर्थ हैं । संसार रूपी समुद्र से उत्तीर्ण करवाने में समर्थ हैं एवं मेघ के समकक्ष वृष्टि दान कर सम्पूर्ण जीवों को तृप्त करने में समर्थ हैं। जिस प्रकार समस्त देशों में मेघ वर्षण के बिना संसार को तप्त करनेवाले धान्यों की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती, उसी प्रकार हे नाथ ! आपके धर्मोपदेश रूपी अमृत की वर्षा के बिना भव्य जीवों को स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्रदाता धर्म की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती । हे देव ! आज सज्जनों का मोह एवं मिथ्यात्व का नाश करने के लिए तथा सन्मार्ग का उपदेश || २९ देने के लिए उपयुक्त समय आ गया है। हे देव ! आपके धर्मोपदेश को सुनकर पशु भी व्रतों को धारण कर स्वर्ग पहुँचते हैं, फिर भला भव्य जीवों का तो कहना ही क्या है ? इसलिये हे प्रभो ! अब भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने के लिए आप उद्योग कीजिये। आपके उद्यमी होने पर आज की विजय को सिद्ध करनेवाला यह धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु प्रस्तुत है। भगवान श्री शान्तिनाथ जगत को धर्मोपदेश देने के लिये स्वयं उद्यत थे तथापि भक्ति परवश h4E F G FEB
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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