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________________ ध्यान-अध्ययन आदि कार्य करना, पन्च-परमेष्ठियों के मंत्रों का जाप करना, भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति करना, पापों के भय से सदाचार का पालन करना, विनयपूर्वक मुनियों की सेवा करना एवं धर्मात्माओं के संग वात्सल्य भाव धारण करना इत्यादि कार्यों से तथा अन्य भी ऐसे ही कार्यों से इस संसार में प्राणियों को तीर्थकर. चक्रवर्ती आदि की विभूति प्रदायक एवं सुख का सागर महापुण्य उत्पन्न होता है । अधिक कथन से क्या लाभ ? पुण्य-पाप के बिना इस संसार में न तो कोई सुख प्रदान कर सकता है एवं न कोई दुःख प्रदान कर सकता है। जो बुद्धिमान अपने हृदय में उपरोक्त समस्त पदार्थों का श्रद्धान करता है, वह मोक्ष महल के प्रथम सोपान के समतुल्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । जो मनुष्य ज्ञान स्वरूप तथा अत्यन्त निर्मल अपनी शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करता है, उसको उसी भव में मोक्ष प्राप्त करवा देनेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन हो जाता है । जैसे दर्पण पर प्रतिबिम्बित मुक्ति-रमणी के आनन (मुख) का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार जो विद्वान इन सप्त तत्वों को यथार्थ रीति से जानता है, वह महाज्ञान प्राप्त करता है । जो मनुष्य जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर समस्त प्राणियों पर करुणा (दया) भाव रखता है, समग्र परिग्रहों तथा समस्त प्रमादों का त्याग करता है एवं आत्मा को सिद्धि के लिए यत्नाचारपूर्वक जिनमुद्रा धारण करता है, वह मुक्ति रूपी रमणी के चित्त को प्रसन्न करनेवाला त्रयोदश प्रकार का चारित्र धारण करता है। जो बुद्धिमान अपनी आत्मा का ही ध्यान करता है, उसके निश्चय चारित्र प्राप्त होता है । विद्वान पुरुष प्रथम तो रत्नत्रय के द्वारा तीनों लोकों में उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त कर तीर्थंकर की महाविभूति को प्राप्त होते हैं तथा अनुक्रम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। मुनिराजगण घातिया कर्मों को विनष्ट कर तथा देवों के द्वारा पूज्य होकर उसी भव में मुक्ति रूपी रमणी के भोक्ता हो जाते हैं। फिर निश्चय रत्नत्रय के आराधन से अघातिया कर्मों को विनष्टकर जन्म-मरण आदि से रहित होकर अनन्त सुख में लीन हो जाते हैं । जो बुद्धिमान अतीत में मोक्ष गये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं या भविष्य में जायेंगे, वे समस्त केवल निश्चय तथा व्यवहार दोनों प्रकार के रत्नत्रय के आराधन से ही गये हैं, जा रहे हैं तथा उन्हीं के आराधन से जायेंगे तथा अन्य किसी की आराधना से कोई जीव | कभी मुक्त नहीं हो सकता।' इस प्रकार तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ ने भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्त कराने के लिए साध्य-साधन के रूप से दोनों प्रकार के रत्नत्रय का निरूपण किया। तदुपरान्त भगवान श्री शान्तिनाथ ने भव्य जीवों का उपकार करने के लिए विस्तारपूर्वक सम्पूर्ण श्रावकाचार का निरूपण किया तथा मुनियों के आचार का निरूपण भी विशेष विस्तार से किया । तत्पश्चात् भगवान श्री जिनेन्द्रदेव ने द्रव्य पर्यायों से परिपूर्ण सम्पूर्ण 4SF FRE
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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